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छवि बचाने के संकट में मोदी

***.......सीधी खरी बात.......***
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२०१४ में अपने मज़बूत प्रचार और सटीक नीति के चलते गुजरात के सीम नरेंद्र मोदी ने जिस बड़े परिदृश्य का उपयोग करके देश की जनता के सामने कुछ ऐसा दिखाने में सफलता पायी थी जिसके चलते उन पर विश्वास करके देश ने उन्हें पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के लिए स्पष्ट जनादेश दिया था. गुजरात में गुजराती अस्मिता और विकास की बातें करके जिस तरह से उन्होंने कई क्षेत्रों में बड़े बदलाव करने में सफलता पायी थी संभवतः वही उनकी राजनैतिक शक्ति भी थी पर पूर्ण बहुमत की भारत सरकार को भी बिना किसी जवाबदेही के गुजरात सरकार की तरह चलाने की मूलभूत गलती प्रारम्भ से ही मोदी और उनकी सरकार द्वारा की जाती रही है और कहा तो यहाँ तक जाता है कि यह केवल दो लोगों की सरकार है और उससे आगे वहां किसी की भी कोई सुनवाई नहीं होती है. अपने से लम्बे राजनैतिक और प्रशासनिक अनुभव रखने वाले नेताओं को मोदी की टीम द्वारा जिस तरह से किनारे किया गया था आज संभवतः उसके चलते भी कुछ मामलों में सरकार के पास ऐसे नेताओं की कमी दिखाई देती है जो सड़क से संसद तक सामने आने वाले मुद्दों पर गंभीरता से विपक्ष और जनता के साथ विश्वसीय संवाद बनाये रखने की हैसियत रखते हों.
ऐसी किसी भी स्थिति से निपटने की अभी तक मोदी और उनकी टीम को कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ी थी क्योंकि सत्ता में आने के साढ़े तीन वर्षों से वे, उनके मंत्री और भाजपा की तरफ से केवल कांग्रेस पर हमले ही किये जाते रहे हैं और भ्रष्टाचार के अधिकांश मामलों केंद्र और सम्बंधित राज्यों में भाजपा की सरकार होने के बाद भी कोई विशेष प्रगति दिखाई नहीं देती है जिससे कहीं न कहीं जनता के उस वर्ग में संदेह उत्पन्न होने लगता है जो किसी भी दल से जुड़ा हुआ नहीं है पर २०१४ में उसने मोदी के नाम पर भाजपा को वोट दिया था. यह एक विचारशील वर्ग का वोट है जो किसी भी समय किसी एक दल के साथ नहीं रहता है और समय आने पर अपने विवेक के अनुरूप काम करता है. आज भाजपा की मोदी सरकार और संघ जिस तरह से अपने मूलभूत वैचारिक सिद्धांतों पर जिस तरह से एक दूसरे के सामने खड़े नज़र आते हैं तो भाजपा की मोदी सरकार और विपक्ष में रहते हुए बयान देने वाली भाजपा में बहुत अंतर् दिखाई देता है. राष्ट्रवाद के नाम पर दूसरों को दबाने और स्वयं उस दिशा में कोई ठोस प्रयास न करने के कारण ही आज मोदी अपनी छवि को लेकर सोचने के लिए मजबूर होते दिख रहे हैं ऐसा नहीं है कि आज उनकी छवि बहुत कमज़ोर हो चुकी है पर जब इसी तरह की परिस्थिति में उलझ कर अटल सरकार जा चुकी हो तो संघ, भाजपा और मोदी के लिए यह सोचने का सही समय कहा जा सकता है.
देश के बहुत सारे मामलों पर जिस तरह से संघ भाजपा और मोदी एक सुर में बोलते रहते थे उन पर सरकार में आने पर मोदी की तरफ से कुछ ख़ास नहीं जा सका है कश्मीरी पंडितों, धारा ३७०, राम मंदिर और समान नागरिक संहिता पर इतनी अधिक बातें की जा चुकी थीं कि आज पूर्ण बहुमत की मोदी सरकार को उसे बोझ समझ कर ढोना पड़ रहा है साथ ही उसे इन ज्वलंत मुद्दों से बचने का कोई रास्ता भी दिखाई नहीं दे रहा है. कश्मीर में महबूबा सरकार में शामिल भाजपा आज जम्मू और लद्दाख के हितों की बात ही नहीं कर पाती है जबकि आज की परिस्थिति में जम्मू और लद्दाख को कश्मीर घाटी की राजनीति से मुक्त करने की कोशिश करने का एक अवसर भाजपा के पास था. चुनावी जीत के लिए मुद्दों को बनाये रखना एक बात है पर सत्ता में होकर उन पर निर्णय कर पाना बहुत ही मुश्किल काम है. अभी तक कांग्रेस को भ्रष्टाचार और नीतिगत जड़ता के मामले पर लगातार घेरने वाले पीएम की तरफ से आर्थिक मोर्चे पर कोई ऐसा काम नहीं किया गया है जिससे देश को कांग्रेस की नीतियों से हटकर चलने का मार्ग दिखाई देता ? एफडीआई, जीएसटी आदि ऐसे मुद्दे हैं जिन पर भाजपा ने विपक्ष में रहते हुए कभी देशहित में मनमोहन सरकार का साथ नहीं दिया और लागू करने के बाद जीएसटी जैसे महत्वपूर्ण कर सुधार को जिस तरह से मज़ाक बना दिया गया है आज वह सरकार के लिए बहुत बड़ी चुनौती है.
अभी तक २०१४ की हार से मूर्छा में पड़ी कांग्रेस को अपने अतिवादी और जबरदस्ती उठाये जाने वाले क़दमों से अपने गृह राज्य गुजरात में जिस तरह से सामने खड़े होने का अवसर मोदी ने दिया है आज वह उनकी गलतियों का परिणाम ही अधिक लगता है क्योंकि एक तरफ आज वित्त मंत्रालय और सरकार जीएसटी के अनाप शनाप तरीके से निर्धारित किये गए स्लैब्स को सुधारने की कोशिशों में लगे हुए हैं वहीँ हाशिये पर पहुँच चुके कांग्रेस उपाध्यक्ष गुजरात के व्यापारियों के सामने हुंकार भरकर कहते हैं कि वे १८% के एक स्लैब के लिए संघर्ष करते रहेंगें और मौका मिलने पर वे केवल एक स्लैब करने की दिशा में काम भी करेंगें. यदि गौर से देखा जाये तो संघ-भाजपा के हिंदुत्व और विकास की प्रयोगशाला में कहीं न कहीं कुछ ऐसा अवश्य हो गया है जिसने पूरे देश में भाजपा का सामना न कर पाने की स्थिति में पहुंची कांग्रेस को गुजरात में दहाड़ने का मौका दे दिया है. इसके चुनावी परिणाम जो भी हों पर कांग्रेस और राहुल गांधी इस बात को रेखांकित करने में सफल होते दिख रहे हैं कि मोदी सरकार व्यापारियों और आम जनता के हितों पर विचार किये बिना ही हर सुधार को ज़बरदस्ती थोपने की कोशिशों में लगी हुई है.
आज भले ही व्यापारियों की समस्याओं के चलते सरकार जीएसटी के स्लैब्स का पुनर्निधारण कर रही हो पर इस मामले पर पहले से हमलावर रहने वाली कांग्रेस को यह कहने का मौका हर बार मिलता जा रहा है कि यह उसके द्वारा विरोध किये जाने का परिणाम है और उसके राज में केवल १८% का एक ही स्लैब होगा. आज मोदी के साथ खड़े रहने वाले भाजपा के नेताओं में भी कमी सी दिखाई देती है क्योंकि उन्होंने अपने संदेह असुरक्षा की भावना के चलते बड़े नेताओं को कुछ ख़ास ज़िम्मेदारी दे ही नहीं रखी है और उसके साथ ही अब जिस तरह से अधिकारियों द्वारा दिए गए आंकड़ों के आधार पर मंत्री बयान देते नज़र आते हैं उससे जनता को कोई जुड़ाव महसूस नहीं होता है. फिलहाल ४२ महीनों में मोदी के नायकत्व पर उनकी नीतियों के चलते उठते हुए सवाल आज उन्हें वो सब करने के लिए मजबूर कर रहे हैं जिनके लिए वे कभी कांग्रेस पर हमले किया करते थे.

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