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सेना और राजनैतिक समझ

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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देश की आज़ादी के बाद से ही जिस तरह से महत्वपूर्ण मामलों में सेना की तरफ से सीधे बयान देने के अतिरिक्त किसी अन्य मसले पर कुछ भी बोलने पर के तरह से अघोषित रूप से राजनैतिक समझ बनी हुई थी और उस पर सरकार के साथ विपक्षी दल भी सहमत ही रहा करते थे अब उस स्थिति में व्यापक बदलाव दिखाई दे रहा है जिसके चलते सेना को जहाँ विभिन्न मुद्दों पर बोलने की छूट मिली है वहीं उस पर विपक्षी दलों की तरफ से राजनैतिक हमलों में भी बढ़ोत्तरी देखी जा रही है. यह ऐसी स्थिति है जिससे सेना को पूरी तरह से अलग रखे जाने की आवश्यकता है क्योंकि देश के संविधान को बनाने वालों ने किसी कमज़ोर और विपरीत राजनैतिक परिस्थिति में मज़बूत सेना की तरफ से सत्ता पर कब्ज़ा किये जाने की संभावनाओं पर विचार करते हुए ही इस तरह की व्यवस्था की थी जिसमें राष्ट्पति, सरकार, रक्षा मंत्रालय के बीच में शक्तियों का बहुत अच्छा समन्वय भी किया गया था. आज जिस तरह से सेना को राजनैतिक रूप से संवेदनशील मसलों पर भी बोलने की छूट दी जा रही है वह मोदी सरकार की रणनीति है जिसमें वह उन बयानों को सेना के माध्यम से दिलवाने की कोशिश में है जिन पर उसके बोलने पर सवाल खड़े किये जा सकते हैं और बाद में वह सरकार पर सवाल खड़े करने वालों पर खुद प्रश्नचिन्ह लगाती है कि विपक्षी दल सेना पर हमले कर रहे हैं जिससे अपने पर आने वाले राजनैतिक दबाव को वह सेना की तरफ मोड़ने में सफल होते भले ही दिख रहे हैं पर भविष्य में इसके खतरे तब सामने आ सकते हैं जब मोदी भारत के राजनैतिक परिदृश्य से ओझल हो चुके होंगे.
भारतीय सेना को ऐसे ही संयुक्त राष्ट्र मिशन और अन्य अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चलने वाले द्विपक्षीय मिशनों में शामिल नहीं किया जाता है पूरा विश्व जानता है कि हमारी सेना पूरी तरह से राजनीति से सिर्फ इसलिए दूर रहती है क्योंकि उसके लिए संविधान में स्पष्ट प्रावधान किये गए हैं और कुछ भी अस्पष्ट नहीं है. भारतीय सेना ने सदैव ही विदेशों तक में अपनी कर्तव्यनिष्ठा के बल पर देश के मान सम्मान को बढ़ाने का काम किया है. वर्तमान में जिस तरह से सरकार की तरफ से सेना के अधिकारियों को प्रेस के सामने लाया जा रहा है वह सेना की उस छवि से मेल नहीं खाता है और इसके दुष्परिणाम भी हो सकते हैं. सितम्बर में सेना की सर्जिकल स्ट्राइक का प्रारम्भ में सभी राजनैतिक दलों ने स्वागत किया पर जब सरकार की तरफ से उसका दुरूपयोग किया गया तो टीवी से लगाकर प्रेस तक उसके सबूत मांगने वाले नेता भी सामने आते दिखाई दिए. इस घटना से नेताओं की वह समझ ख़त्म सी होती लगी जिसमें वे अघोषित रूप से ही सही पर सेना को लेकर अनावश्यक वियवादों से दूर ही रहा करते थे. भारत के सेनाध्यक्ष की पूरी दुनिया में बहुत इज़्ज़त की जाती है वह सिर्फ इसलिए नहीं कि भारतीय सेना विश्व की बड़ी सेनाओं में है बल्कि इसलिए कि उनके नेतृत्व में काम करने वाली यह सेना पूरी तरह से अपनी कर्तव्य निष्ठा के लिए जानी जाती है.
पहले संदीप दीक्षित फिर आज़म खान की तरफ से आने वाले बयानों से उनकी पार्टियों ने सिर्फ इसलिए ही पल्ला झाड़ लिए क्योंकि ये बयान अनावश्यक थे और इनका केवल राजनैतिक दुरूपयोग ही किया जा सकता है. इसके बाद यह सोचा जाना चाहिए कि जिन परिस्थितियों में सेना काम करती है उसमें उससे क्या अपेक्षाएं की जानी चाहिए और सेना के संयम की क्या सीमा होनी चाहिए ? नेता तो कुछ भी बोल देते हैं पर जब उस पर विवाद बढ़ता है तो वे बेशर्मी के साथ अपने बयानों के और दूसरे मतलब भी समझाने लगते हैं. संदीप दीक्षित और आज़म खान कोई कल के युवा नेता नहीं है जिनको इस बात का एहसास नहीं है कि कब क्या कहा जाना चाहिए फिर भी यदि उनकी तरफ से ऐसे बयान आते हैं तो मामले के दोनों पक्षों को भी गौर से देखा जाना चाहिए. देश की संसद जिसके पास कानून बनाने की क्षमता है और वहां बैठने वाले जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों के लिए यह समय सोचने का है कि उनकी तरफ से आखिर क्या गलती की जा रही है जिससे आज सेना उनके आपसी राजनैतिक विवादों का मोहरा बनती हुई नज़र आ रही है ? क्या सदन के दोनों पक्षों के पास इतनी समझदारी नहीं बची है कि वे सेना से जुड़े मुद्दों पर सार्वजनिक रूप से कुछ भी बोल देने से बचने की तरफ सोचना शुरू करें ? विभिन्न राजनैतिक दलों को क्या कुछ कड़े अनुशासन के बारे में नहीं सोचना चाहिए जिसका अनुपालन करना सभी नेताओं के लिए अनिवार्य हो और उनमें विफल होने पर क्या नेताओं के लिए पार्टी स्तर पर कोई दंडात्मक प्रावधान भी नहीं होने चाहिए ? जब तक सत्ता के लिए सेना को भी बैसाखी के रूप में उपयोग कर लेने की प्रवृत्ति से छुटकारा नहीं पाया जायेगा तब तक नेताओं की इस नई बीमारी को समाप्त नहीं किया जा सकता है.

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