Menu
blogid : 488 postid : 1336585

राष्ट्रपति चुनाव की राजनीति

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
  • 2165 Posts
  • 790 Comments

अपने संख्या बल के आधार पर अपने प्रत्याशी को रायसीना हिल्स तक पहुँचाने की मज़बूत स्थिति में राजग के सामने विपक्ष की तरफ से कोई बड़ी चुनौती नहीं है क्योंकि इस चुनाव में अधिकांशतः सत्ता पक्ष अपने व्यक्ति को महत्वपूर्ण पद पर लाना चाहता है जिसे किसी भी तरह से गलत भी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि देश के संवैधानिक मुखिया के पद पर बैठने वाले व्यक्ति और प्रधानमंत्री के बीच किसी भी तरह की अनबन या विवाद की ख़बरें सामने आती हैं तो वे दलीय लोकतंत्र और संसदीय व्यवस्था के लिए सुखद नहीं कही जा सकती हैं. इस पद का केवल शोभन महत्व होने के चलते ही देश के गणतंत्र बनने के बाद से हर सत्ताधारी दल अपने प्रत्याशी को चुनने में सभी संभव राजनैतिक समीकरणों को साधने के लिए प्रयासरत रहा करता है. वर्तमान में यदि भाजपा और मोदी सरकार इस पर के लिए कोविंद को सामने लायी हैं तो यह उनका पार्टी और राजग से जुड़ा हुआ मामला है उनके चुने गए प्रत्याशी पर किसी को भी सवाल उठाने का अधिकार नहीं है. आज देश में राजनीति का स्तर बहुत निम्न हो चुका है जिससे बचने का कोई समाधान नहीं है तथा सोशल मीडिया के बढ़ते चलन और नेताओं की हरकतों ने उन्हें पूरे देश में मज़ाक का विषय बना दिया है.
वैसे तो देश में पूर्ण बहुमत की सरकार है और कोई विशेष संकट भी दिखाई नहीं देता है पर क्या हमारे देश के नेताओं को अपने देश के राष्ट्रपति और भारतीय सेना के सर्वोच्च कमांडर को चुनने में कुछ और सावधानियां नहीं बरतनी चाहिए ? वैसे तो राष्ट्रपति मंत्रिमंडल की सलाह मानने को बाध्य होता है पर किसी विशेष परिस्थिति में उनकी भूमिका अचानक से बहुत बढ़ जाती है जैसे १९८४ में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद देश के लिए नए प्रधानमंत्री को शपथ दिलाने का काम ज्ञानी जैल सिंह पर आ गया था और उन्होंने कांग्रेस की सलाह से राजीव गाँधी को इस पद की शपथ दिलाई थी ज़रा सोचिये उस या उसके जैसी किसी भी संकट कालीन परिस्थिति में किसी महत्वाकांक्षी व्यक्ति के राष्ट्रपति होने पर वह अपने किसी व्यक्ति को शपथ दिला सकता है क्योंकि जब उसको सलाह देने वाला पीएम ही नहीं होगा तो उस स्थति में उसके अधिकारों का दुरूपयोग संभव हो सकता है. अभी तक राष्ट्रपति पद पर सत्ताधारी दलों ने अपने सीनियर नेताओं को ही बिठाया है जिसमें से केवल डॉ कलाम एक अपवाद हैं क्योंकि उस समय अटल सरकार अपनी पसंद के किसी राजनैतिक व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाने की स्थिति में नहीं थी तो उनका चुनाव सरकार की मंशा के अनुरूप राष्ट्रपति चुनने की सफल कोशिश कहा जा सकता है.
दुर्भाग्य है कि आज भी देश के राजनैतिक तंत्र को शीर्ष पदों के लिए जातीय गणित भी देखनी होती है क्योंकि समाज के हर वर्ग को हर राजनैतिक दल अपनी तरफ खींच कर अपने वोटबैंक में शामिल करना चाहता है तो उस स्थिति में इन शीर्ष पदों तक राजनीति से किसी भी तरह से परहेज़ नहीं किया जा सकता है. आज की भाजपा में अटल-आडवाणी-जोशी की राजनीति और उसका समर्थन करने वालों की संख्या नगण्य होती जा रही है और निजी कारणों से मोदी शाह की जोड़ी भी भाजपा की अंदरूनी राजनीति में अपने लिए आने वाले दशक तक कोई संकट न आने देने के लिए इनके प्रभाव को और भी कम करने में लगी हुई है. ऐसी परिस्थिति में कोविंद का राष्ट्रपति चुना जाना लगभग तय ही है क्योंकि भाजपा में बड़े स्तर पर कोई क्रॉस वोटिंग होगी इसकी सम्भावना न के बराबर है हाँ आडवाणी के घोर समर्थक कहीं कहीं पर भाजपा के प्रत्याशी को वोट देने से कतरा सकते हैं क्योंकि विपक्ष की तरफ मीरा कुमार को प्रत्याशी बनाये जाने से राजग के लिए यह चुनाव थोड़ा चुनौतीपूर्ण अवश्य हो गया है पर कोविंद के जीतने की पूरी सम्भावना है. भाजपा में आज कोई भी मोदी शाह के निर्णय के विरोध में नहीं बोल सकता है क्योंकि आडवाणी, जोशी, राजनाथ, सुषमा का हाल किसी से भी छिपा नहीं है इसलिए क्रॉस वोटिंग की आशा करना ही बेकार है हाँ भाजपा के सामूहिक नेतृत्व के आदी रहे नेताओं के लिए मोदी शाह का कांग्रेसी संस्कृति के अनुरूप काम करना चुभ तो रहा है पर वे कुछ भी करने कई स्थिति में नहीं है. इस चुनाव में कोविंद के लिए विपक्ष की तरफ से कोई खतरा नहीं है पर भाजपा में यदि भितरघात (जिसकी संभावनाएं बहुत कम हैं) होता है तो चुनाव पेचीदा हो सकता है.

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh