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असम और हिन्दू बांग्लादेशी शरणार्थी

***.......सीधी खरी बात.......***
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दिल्ली से सुदूर पूर्वोत्तर के सबसे बड़े राज्य असम में एक बार फिर से विदेशी शरणार्थियों के मुद्दे पर स्थानीय निवासी आक्रोशित हैं और अब वे जिस तरह से राज्य और केंद्र की भाजपा सरकार के बांग्लादेशी हिंदुओं को राज्य के वैध नागरिक बनाये जाने और नागरिकता देने का विरोध कर रहे हैं उस परिस्थिति में बहुत ही संवेदनशीलता के साथ दोनों सरकारों को आगे बढ़ने की आवश्यकता भी है. पूरे देश में विभिन्न स्थानों पर जिस तरह से अलग अलग परिस्थितियों में विदेशी शरणार्थियों और अवैध प्रवासियों के बीच अंतर करना कठिन ही रहा है उस परिस्थिति में एक बार फिर से असम में चुनौती उभर सकती है जिससे १९८५ के असम समझौते से राज्य में शांति लाने के तत्कालीन पीएम राजीव गाँधी के गंभीर प्रयासों को एक बार फिर से धक्का भी लग सकता है जिसके चलते आज तक असम में यह मुद्दा कभी भी इतना प्रभावी नहीं रहा है. उल्लेखनीय और चिंताजनक यह भी है कि उस समझौते पर आल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) की तरफ से हस्ताक्षर करने वाले असम गण परिषद के नेता और राज्य की सत्ता संभाल चुके प्रफुल्ल महंत आज भाजपा के सहयोगी दल के रूप में भी इस निर्णय का विरोध कर रहे हैं.
देश में नेता राजनैतिक दल और आम जनता भी महत्वपूर्ण मुद्दों पर कितना बंटी हुई है यह इस मामले में देखा जा सकता है क्योंकि अपने चुनावी घोषणा पत्र में भाजपा ने बांग्लादेशी हिन्दूओं को राज्य में नागरिकता देकर बसाने का वायदा किया था और चूंकि यह मुद्दा पूरे देश में भाजपा की राजनीति को मज़बूती प्रदान करता है तो उस परिस्थिति में अब भाजपा सरकार भी इसे लागू करना चाहती है जिसे वह अपने चुनावी वायदे को पूरा कर सके और १.७० लाख लोगों को असम में कानूनी तौर पर बसा भी सके जो आने वाले समय में उसके बड़े वोट बैंक के रूप में काम कर सकते हैं साथ ही वे उन बहुत सारी सीटों पर चुनावी समीकरणों को बदल भी सकते हैं जहाँ आज भाजपा के लिए राजनैतिक शून्य ही अधिक है. इस पूरी परिस्थिति में सीएम के रूप में सर्बानंद सोनोवाल की भूमिका भी संदिग्ध होने वाली है क्योंकि वे भी आसू की राजनीति से भाजपा में होकर आज सीएम पद तक पहुंचे हैं इसलिए जनजातीय समूहों की अनदेखी उनको भी भारी पड़ सकती है. असम की जनता की यह गलती है कि उसने भाजपा के घोषणापत्र पर ध्यान ही नहीं दिया और उसे चुनाव में स्पष्ट बहुमत दिया तो अब भाजपा पर इस बात का दबाव बनाने का कोई औचित्य भी नहीं है कि वह इस तरह के कदम उठा रही है. असम गण परिषद और अन्य जनजातीय समूह भी इस मामले में कम दोषी नहीं हैं क्योंकि उनकी तरफ से भाजपा के चुनावी घोषणापत्र में कही गयी इस बात की उस समय अनदेखी की गयी थी. साथ ही अब भाजपा के लिए अपने लिए भविष्य की राजनीति के साथ पूर्वोत्तर की राजनीति में प्रासंगिक बने रहने के लिए इस मुद्दे पर दोहरी चुनौती सामने आकर खडी हो गयी है.
देश में शरणार्थियों के लिए एक स्पष्ट नीति बनाये जाने की आवश्यकता भी है क्योंकि सीमा पार से आये हुए शरणार्थी जिस तरह से देश के सीमावर्ती राज्यों में राजनीति को प्रभावित करते हैं तो उसके लिये अब स्पष्ट रूप से संसद, सरकार, गृह मंत्रालय और कानून मंत्रालय को यह विचार करना चाहिए कि भविष्य में देश में आने वाले शरणार्थियों के लिए किस तरह की नीति अपनायी जाये जिससे वे स्थानीय लोगों के साथ संघर्ष के स्थान पर सामंजस्य के साथ रह सकें. इसके लिए सबसे उपयुक्त यही हो सकता है कि इन समूहों के लिए देश के विभिन्न शहरों में आवासीय कालोनियां बनायीं जाएँ जिनमें रहने के इच्छुक लोगों को ही नागरिकता प्रदान की जाये ये कालोनियां उनके उन सीमावर्ती भारतीय राज्यों से दूर के राज्यों में होनी चाहिए जहाँ जाने से उनके द्वारा कोई राजनैतिक उलटफेर किये जाने की त्वरित आशंकाएं भी न हों साथ ही उनके साथ नागरिकता को स्थायी रूप से बनाये रखने के लिए कुछ विशेष नियम भी होने चाहिए जिसे उन पर केंद्र, राज्य सरकार के साथ कानून का अंकुश भी बना रहे. सरकार भी केवल उतने लोगों को ही नागरिकता प्रदान करे जिनके लिए वह समुचित रूप से आधार भूत सुविधाएँ दे पाने में सक्षम हो इससे जहाँ उनकी देश के नए स्थानों पर बसने की परिस्थिति को अच्छा किया जा सकेगा वहीं बिना किसी अतिरिक्त समस्या के इस पूरी व्यवस्था को संचालित किया जा सकेगा. साथ ही भारत आने और नागरिकता पाने के १० वर्षों तक उनके व्यवहार को देखकर ही उनको मताधिकार आदि की सुविधाएं देने की बात भी होनी चाहिए जिससे कोई भी राजनैतिक दल अपने त्वरित लाभ के लिए ऐसे कदम उठाना शुरू न कर सके.

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