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चुनाव, चंदा और राजनीति

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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देश के राजनैतिक दलों को जिस तरह से अपने संसाधनों के रूप आम लोगों से चंदा लेने के लिए जो छूट दी गई थी वह टीएन शेषन के ज़माने से ही चुनाव आयोग के निशाने पर रही है फिर भी उस पर नये सिरे से कोई सुधारात्मक कदम नहीं उठाया जा सका है जिससे आज नोटबंदी के समय में सभी राजनैतिक दल इस बात के लिए आम लोगों के लिए और भी अधिक संदेहास्पद बन गए हैं कि नियम केवल आम लोगों के लिए हैं और राजनेताओं को उससे हर स्तर पर पूरी छूट दी गयी है. निश्चित रूप से यह बहुत ही विवादास्पद मुद्दा रहने वाला है क्योंकि जब भी इस पर कोई बात संसद के बाहर उठायी जाती है राजनैतिक दलों की तरफ से बहुत ही ठंडी प्रतिक्रिया सामने आती है क्योंकि उनको यह लगता है कि देश में केवल आम जनता, उद्योगपति और व्यवसायी ही करों की चोरी करते हैं और राजनैतिक तंत्र अपने आप में ईमानदारी की जीती जागती प्रतिमूर्ति है जबकि वास्तविक स्थिति इससे उलट ही है और आज देश में भ्रष्टाचार की सूची में राजनेताओं को ही सबसे ऊंचा स्थान मिलता रहता है और यह किसी से भी छिपा नहीं है क्योंकि चुनाव जीतने के बाद जिस तरह से अधिकांश नेताओं के रहन सहन में अप्रत्याशित सुधार आ जाता है वह किसी आम व्यक्ति के लिए पूरे जीवन एक सपना ही रह जाता है.
चुनाव आयोग ने एक बार फिर से चंदे के बारे में जिस तरह से बिना लिखा-पढ़ी के दो हज़ार रुपयों से अधिक के चंदे के लेन-देन पर रोक लगाने के लिए सरकार को फिर से प्रस्ताव दिया है वह अमल में लाया ही जाना चाहिए क्योंकि जब तक खुद राजनेता अपने तंत्र में ईमानदारी को नहीं लायेंगें तब तक उनकी तरफ से देशभक्ति और ईमानदारी के सारे आह्वाहन केवल खोखले ही साबित होने वाले हैं. इस मसले पर सरकार को अविलंब एक प्रस्ताव लाकर उस पर कानून मंत्रालय समेत सभी राजनैतिक दलों के साथ विमर्श शुरू करने के बारे में सोचना ही होगा क्योंकि यह मुद्दा केवल सरकार के लिए ही आवश्यक नहीं है बल्कि देश के हर राजनैतिक दल के लिये इसका उतना ही महत्व है. जजों की नियुक्ति में हस्तक्षेप, वेतन भत्तों में बढोत्तरी आदि मसलों पर जितनी आसानी से सदन में सहमति दिखाई देती है क्या कभी वैसी सहमति देशहित के इस मुद्दे पर भी दिखाई देगी या कुछ छोटे दल ही अपने स्तर से इस राजनैतिक कदाचार के लिए अपर्याप्त संघर्ष करते रहने वाले हैं ? निश्चित तौर पर आज के समय में इस तरह की नीतियां अंत में देश को ही नुकसान पहुंचती हैं और जब राजनैतिक दल खुद ही इस तरह के भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने में लगे रहेंगें तो उनके नेताओं से ईमानदारी की अपेक्षा किस दम पर रखी जा सकती है ?
१९६१ में जब यह कानून बनाया गया तो २०००० रूपये बहुत होते थे पर आज क्या इस तरह की छूट की आवश्यकता है या देश के चुनाव सुधारों के रूप में सबसे पहले राजनैतिक दलों के अवैध तरीके से लिए जाने वाले इस चंदे पर ही रोक नहीं लगायी जानी चाहिए ? आखिर ये सुधार किये जाएँ इसके लिए चुनाव आयोग कब तक सरकार को सुझाव ही भेजता रहेगा और सरकार उन्हें हमेशा की तरह कूड़े के ढेर में डालती रहेगी ? अब समय आ चुका है कि चुनाव सुधारों को व्यापक रूप में लागू किया जाये और आने वाले समय में देश की राजनीति को और भी स्वच्छ बनाने की कोशिशों को और भी आगे बढ़ाया जाये पर इसके लिए क्या देश के नेता और राजनैतिक दल कुछ विचार करने के लिए तैयार भी हैं या नहीं या वे चुनाव आयोग की केवल चुनाव के समय असीमित और सामान्य समय में बेहद सीमित शक्तियों में ही खुश हैं ? आज़ादी के कई दशकों तक चुनावों में पैसा इतना प्रभावी नहीं होता था जिससे इस तरह की छूट समझ में आती थी पर आज जब लोग राजनीति को भी धंधे के रूप में अपनाने लगे हैं तो इसे भी उसी श्रेणी में रखा ही जाना चाहिए. देश में ऐसे संगठनों की कमी है जो इस मुद्दे पर जान आंदोलन खड़ा कर सकें और देश का कानून भी सुप्रीम कोर्ट तक को सामान्य विधायी कार्यों में दखल देने से रोकता है तो उस स्थिति में आखिर चुनाव आयोग के पास सरकार से अनुरोध करने के अतिरिक्त क्या विकल्प शेष बचते हैं ?

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