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नोट बंदी जनता और जन-प्रतिनिधि

***.......सीधी खरी बात.......***
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८ नवम्बर की रात हुई घोषणा के बाद जिस तरह से देश में आम लोगों की समस्याओं में दिन प्रतिदिन बढ़ोत्तरी ही होती जा रही है उससे यही लगता है कि यह मामला अभी बहुत लंबा खिंच सकता है क्योंकि बैंकों के पास जिस संख्या में नए नोट होने चाहिए थे वह उसके कहीं से भी बराबर तो क्या चौथाई हिस्से तक भी नहीं पहुंच पा रहे हैं जिसका मुख्य कारण नए नोटों की छपाई होना भी है क्योंकि पूरी क्षमता से छापने के बाद भी इस स्थिति से निपटने और देश की ८६% करेंसी को बदलने में इस रफ़्तार से अभी भी दो महीने लग सकते हैं. ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर सरकार और देश के राजनैतिक तंत्र के पास क्या विकल्प शेष हैं जिनको अपनाकर इस समस्या की तीव्रता को कुछ कम किया जा सकता है. इस तरह की स्थिति में संसद के शीत कालीन सत्र में भी कोई काम नहीं हो पा रहा है क्योंकि सत्ता पक्ष और विपक्ष अपनी अपनी स्थितियों में डटे रहकर हर तरह का राजनैतिक लाभ उठाने की मंशा पाले हुए हैं. बिना ठोस तैयारी के जिस तरह से आनन् फानन में यह कदम उठाया गया उससे इस बात से इनकार भी नहीं किया जा सकता है कि भाजपा ने इस मामले का लाभ यूपी चुनावों में उठाने के मकसद से ऐसा किया वहीं आम लोगों की समस्याओं को उठाकर विपक्ष भी सरकार पर हर तरह से हमलावर हो रहा है जिसका देश या देश की जनता को कोई लाभ नहीं मिलने वाला है.
ऐसी स्थिति में संसद के शीतकालीन सत्र और सभी राज्यों की विधानसभाओं के चल रहे सत्रों को पूरी तरह से स्थगित किया जाना चाहिए तथा जिन राज्यों में ये सत्र शुरू होने हैं वहां पर इनको आगे बढ़ाया जाना चाहिए क्योंकि देश की जनता के लिए संसद और विधानसभाओं में होने वाले हंगामे से अधिक महत्वपूर्ण यह है कि आम लोगों को देश के नेता इस विपरीत परिस्थिति में किस तरह से मदद पहुंचा सकते हैं. भले ही इस बात को स्वीकार न किया जाये पर ज़मीनी हकीकत को देखा जाये तो देश में आर्थिक आपातकाल जैसी स्थिति तो चल ही रही है लोगों के खातों में पैसा है पर बैंकों के पास भुगतान करने के लिए धन की व्यवस्था नहीं है ऐसी स्थिति में अब जनता और बैंकों के पास कितने विकल्प शेष बचते हैं ? देश के संविधान ने माननीयों को बहुत सारी सुविधाएँ दे रखी हैं तो आज की परिस्थितियों के अनुसार जब जनता को व्यवस्था की आवश्यकता है तो इन माननीयों को संसद और विधान सभाओं के स्थान पर बैंकों और डाकघरों के बाहर लाइन में खडी जनता के साथ दिखाई देना चाहिए. देश में ऐसा संकट पहली बार है जब आर्थिक व्यवस्था करीब करीब चरमरा चुकी है और जनता के पास बेहतर भविष्य के लिए इसका समर्थन करने के अतिरिक्त कोई चारा भी नहीं है तो देश के राजनैतिक तंत्र को क्या जनता की मदद के लिए सड़कों पर नहीं होना चाहिए ? हमारे माननीय सदैव ही अपने को किसी और प्रजाति का मान लेते हैं जिनको जनता से जुड़े हुए सरोकारों से कोई ख़ास मतलब नहीं होता है जिससे जनता अपने को ठग हुआ महसूस करती है.
सभी सांसदों और विधायकों के लिए यह अनिवार्य किया जाना चाहिए कि वे अपने क्षेत्र के बैंक और डाकघरों का दौरा करें तथा स्वयं या अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से जनता की समस्याओं को सुलझाने की कोशिशें भी करें. यदि हज़ारों की संख्या में माननीय अपने क्षेत्रों में निकल पड़ेंगें तो बैंकों, डाकघरों और पुलिस प्रशासन का काम आसान ही होने वाला है क्योंकि दिल्ली और मुम्बई से जारी होने वाले सरकार और रिज़र्व बैंक के निर्देशों को बैंकों तक पहुँचने में जो समय लग रहा है वह भी जनता की परेशानियों को बढ़ाने वाला ही है. समय चाहे जो भी लगे पर जनता के लिए बैंक और डाकघरों के बाहर सुचारू रूप से टोकन देने की व्यवस्था की जानी चाहिए जो सभी राजनैतिक दलों के द्वारा सहयोग से की जाये क्योंकि सबसे बड़ा सवाल यह है कि वोट मांगने के समय फैले हुए हाथ आज किसानों के खेतों तक बीज और खाद पहुंचाने के लिए सामने क्यों नहीं दिखाई दे रहे हैं ? जनता को आम जन प्रतिनिधि से वैसे भी कोई विशेष काम या उम्मीद नहीं होती है तो कम से कम इस आर्थिक विपत्ति में उनके खेतों तक बीज पहुँच जाये तो देश का भला हो सकता है पर क्या देश का राजनैतिक तंत्र अपनी झूठी शान से बाहर निकल कर जनता के लिए इस तरह से काम करने के लिए मानसिक रूप से तैयार भी है ? क्या वह जनता के उन उलाहनों को सुनने की शक्ति रखता है जो लाइन में खड़े होकर परेशानी झेलते हुए उसकी तरफ से लगातार दिए जा रहे हैं ? देश में ऐसा कोई कानून ही नहीं है जिसके चलते सांसदों और विधायकों के लिए यह आवश्यक कर दिया जाए कि अपने क्षेत्र के कम से कम १०० बैंक और डाकघरों से उपस्थित रहने के प्रमाण पत्र प्रस्तुत करने के बाद ही उनको सदन के अगले सत्र में भाग लेने की अनुमति मिल पायेगी. यदि ऐसा कर दिया जाए तो आने वाले समय में विभिन्न समस्याओं से निपटने के लिए इस प्रमाण पत्र पर जनता की संस्तुति भी ली जाये जिससे हमारे माननीय कुछ और ज़िम्मेदार हो सकें.

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