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धर्म और राजनीति की राह

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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२० वर्षों से सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामले पर कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने जिस तरह से देश की संसद और विधायिका को आड़े हाथों लेते हुए धर्म के राजनीति में दुरुयोग से जुड़े मामलों पर सवालों की लंबी सूची सामने रखी है उससे यही लगता है कि आने वाले समय में मोदी सरकार के लिए यह मुद्दा एक समस्या बनकर सामने आने वाला है. हालाँकि दो वर्षों से कुछ अधिक समय से सत्ता संभल रही मोदी सरकार ने भी इस मुद्दे पर अभी तक कुछ नहीं कहा है पर कोर्ट ने जिस तरह से पिछले २० वर्षों की सभी सरकारों पर प्रश्नचिन्ह लगाया है उसमे देश का हर राजनैतिक दल अपने आप ही शामिल हो गया है क्योंकि इस दौरान संयुक्त मोर्चे से लगाकर एनडीए, यूपीए और फिर एनडीए का शासन देश पर रहा है जिससे यही साबित होता है कि लगभग हर राजनैतिक दल या उसके प्रत्याशी अपने लाभ के लिए समय समय पर वर्तमान कानून में कुछ कमी होने के कारण राजनीति में धर्म का दुरूपयोग करने को सही ही मानते हैं. भले ही संविधान की कसमें खाने वाले नेता कुछ भी कहें पर उनके दिलों में क्या बसता है यह सुप्रीम कोर्ट की कठोर टिप्पणियों और सवालों से सामने आ ही गया है. क्या आज हमारे देश के नेताओं को इस बात की आदत हो गयी है कि किसी भी विवादित मुद्दे को तब तक खींचा जाये जब तक कोई कोर्ट जाकर उसके बारे में स्पष्ट आदेश न ले आये और नेता इस बात का रोना रो सकें कि वे तो नहीं चाहते थे पर कोर्ट का आदेश है तो करना पड़ रहा है ?
स्पष्ट रूप से यह बात सबके सामने आ चुकी है कि कोर्ट ने ऐसे ही कठोर बातें नहीं कही हैं क्योंकि देश के संविधान की रक्षा करना और समय समय पर आवश्यकता के अनुरूप संविधान में परिवर्तन करने का अधिकार केवल विधायिका को मिला हुआ है जिससे संविधान को समय के अनुरूप और जीवंत बनाये रखा जा सके पर पिछले कुछ दशकों से यह बात अधिक दिखाई दे रही है कि संसद में बैठे नेता विवादित मुद्दों पर स्पष्ट रूप से अपनी इस संविधान प्रदत्त ज़िम्मेदारी से भागते हुए दिखाई देते हैं और दुर्भाग्य की बात यह है कि राष्टीय दलों के साथ प्रभावी क्षेत्रीय दल भी इस मामले में चुप्पी लगाकर बैठ जाते हैं जिससे यही सन्देश सामने आता है कि हर दल कहीं न कहीं से अपनी सुविधा के अनुसार धर्म और राजनीति का दुरूपयोग करने को बुरा नहीं मानता है जिसका दुष्प्रभाव कई बार सामाजिक विभाजन के तौर पर सामने आता है. अब चूंकि यह विभाजन समय और स्थान के अनुरूप राजनेताओं को अपनी राजनीति को मज़बूत करने का काम भी करता है तो किसी भी दल को इस बात में कोई दिलचस्पी ही नहीं होती है कि इस प्रक्रिया पर कोई रोक लगायी जाए.
सुप्रीम कोर्ट की तरफ से किये गए सवालों और टिप्पणियों के बाद यह लग रहा है कि उसकी तरफ से सरकार के जवाब को सुनने के बाद इस मामले पर कोई कठोर निर्णय भी दिया जा सकता है जो कहीं से भी फतवे और मंदिर के नाम पर राजनीति करने वाले देश के राजनैतिक दलों को रास नहीं आने वाला है पर जब संविधान का एक स्तम्भ अपने उत्तरदायित्व के निर्वहन में इतना लाचार हो जाये कि वह संविधान से ऊपर केवल अपनी राजनैतिक संभावनाओं पर ही विचार करने तक सीमित हो जाये तो उस परिस्थिति में संविधान के दूसरे स्तम्भ पर अपने उत्तरदायित्व के निर्वहन की ज़िम्मेदारी तो आ ही जाती है. सुप्रीम कोर्ट की तरफ से जिस तरह से कठोर रुख अपनाया गया है उसके बाद यह भी आवश्यक लगता है कि संसद इस तरह दीर्घावधि से लंबित मामलों में भी अपनी ज़िम्मेदारी को सही तरह से समझना शुरू करे क्योंकि यदि कोर्ट की तरफ से इस पर कोई स्पष्ट आदेश आता है तो उससे राजनैतिक दलों को ही सबसे अधिक परेशानी होने वाली है. संसद की कार्य मंत्रणा समिति को भी इस बारे में ध्यान देना चाहिए जिससे आने वाले समय में संविधान की मूल भावना के अनुरूप काम करने में सभी को सहायता मिले और संविधान की सर्वोच्चता सिद्ध भी हो.

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