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सेना के असुरक्षित कैंप

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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पठानकोट के बाद उरी में हुए आतंकी फिदायीन हमले जिस तरह से सेना के सीमावर्ती क्षेत्रों में स्थित कैम्प्स की सुरक्षा से जुड़े हुए गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं वहीं इस बात पर भी विचार करने के लिए मजबूर कर दिया है कि क्या हमारे सैनिक इस तरह के हालात में रह रहे हैं जहाँ पर उनके लिए अपनी सुरक्षा कर पाना भी मुश्किल हो रहा है ? यह सही है कि स्थायी छावनी और विभिन्न तरह के अस्थायी कैम्प्स में सुविधाओं में बड़ा अंतर हुआ करता है फिर भी जब इन कैम्प्स के माध्यम से ही हमारे जवान सीमावर्ती क्षेत्रों से लगाकर अपनी छावनी तक आते जाते हैं तो इनकी सुरक्षा को इस तरह से कैसे रखा जा सकता है ? देश में बढ़ता हुआ रक्षा बजट हमेशा से ही विदेशों में चिंता का विषय बनता रहता है पर जब हमारे सैनिकों और सैन्य प्रतिष्ठानों की सुरक्षा की बात सामने आती है तो हम क्यों इसके प्रति लापरवाह हो जाते हैं ? जिन सैनिकों के दिलों में देश के लिए लड़ने की चाहत होती है वे आखिर क्यों इस तरह से छिपकर किये गए हमलों में शहीद हो जाते हैं अब देश और सरकार के साथ सेना को भी इस विषय पर सोचने की आवश्यकता है क्योंकि पाक के रवैये को देखते हुए आने वाले समय में भी सीमा और घाटी के अंदर परिस्थितियों में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आने वाला है जिससे हमारे सैनिक सदैव ही इस तरह के हमलों की जद में ही रहने वाले हैं.
आज़ादी के बाद एक समय ऐसा भी था जब आर्थिक संसाधनों की कमी के चलते देश के पास अपने जवानों के लिए सर्दियों और बर्फीले क्षेत्रों में उपयोग करने लायक वर्दी खरीदने के पैसे भी नहीं होते थे पर आज स्थिति उससे बहुत अलग है तो क्यों नहीं हम एक ऐसी नीति पर आगे बढ़ने की सोचते हैं जिसमें देश भर में फैले सेना के सभी प्रतिष्ठानों को मज़बूत सुरक्षा घेरे में लाने के लिए प्रयास शुरू किये जाएँ. यह सही है कि देश के समग्र विकास के लिए सुरक्षा के अतिरिक्त हर क्षेत्र में प्रगति आवश्यक होती है पर आज जब हम सुरक्षा पर अतिरिक्त धन खर्च करने के लिए सक्षम हैं तो सेना के सभी प्रतिष्ठानों के बारे में गंभीरता से सोचने का समय भी आ गया है. एक नीति के अंतर्गत सबसे पहले सेना के आतंक प्रभावित क्षेत्रों के सभी स्थलों की सुरक्षा के लिए मज़बूत दीवार और सही डिज़ायन पर काम किया जाना चाहिए जिससे सुरक्षा संबंधी इस तरह की समस्याएं भी सामने न आने पाएं कि कोई आतंकी समूह बहुत आसानी से तार काटकर इस तरह से हमारे सोते हुए सैनिकों पर हमला कर सके. छद्म युद्ध को पूरी तरह से रोका नहीं जा सकता है इसलिए संसाधनों की कमी के चलते उससे होने वाली क्षति को नियंत्रित करने के बारे में तो सही दिशा में आगे बढ़ा ही जा सकता है. सेना के लिए हर तरह की व्यवस्था करते समय इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए और बैरक आदि इस तरह से बनाई जानी चाहिए कि किसी भी आतंकी हमले के समय सेना कम से कम नुकसान के साथ उनसे अच्छे से निपट सके.
इस बारे में अब केंद्र सरकार अवश्य ही गंभीरता से कुछ सोच रही होगी और अब उसे अपनी सुरक्षा संबंधी नीति पर एक बार फिर से इस तरह से विचार करना ही चाहिए जिससे एक समय सीमा में हम अपने सभी सैन्य शिविरों और अन्य सामरिक महत्त्व के प्रतिष्ठानों की एक व्यापक नीति के अंतर्गत सुरक्षा कर सकें. अस्सी के दशक में पंजाब आतंक के दौर में जब राजीव सरकार ने सीमा पर कांटेदार बाड़ लगाने का काम शुरू किया था वह पूरा होने पर घुसपैठ को पूरी तरह से रोकने में सफलता मिल गयी थी तथा बाद में सरकारों ने एलओसी तथा जम्मू कश्मीर की अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर भी सफलता पूर्वक लगाकर देश को पहले के मुक़ाबले अधिक सुरक्षित कर लिया है. जम्मू कश्मीर में जिस तरह की भौगोलिक परिस्थितियां हैं उनके चलते बाड़ अक्सर ख़राब हो जाती है जिसे ठीक भी किया जाता है पर आज हमें एक निश्चित बजट के साथ भविष्य में सेना के शिविरों को सुरक्षित करने के लिए अनिवार्य रूप से एक समय सीमा निर्धारित करने की आवश्यकता भी है जिससे देश की रक्षा करने वाले सैनिकों को शिविरों में और भी अधिक सुरक्षित किया जा सके. ये सैनिक भी हमारे ही परिवार का हिस्सा हैं और अब हम इनको इस तरह से असुरक्षित वातावरण में नहीं रख सकते हैं.

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