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हिंदी दिवस की सार्थकता

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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देश की राजभाषा के रूप में स्वीकार की गयी हिंदी आज़ादी के बाद से ही विचित्र स्थिति में उलझी हुई दिखाई देती है क्योंकि अधिकांश मामलों में केवल भाषायी राजनीति को आगे रखकर ही देश की राजभाषा के साथ अन्य प्रचलित प्रान्तीय भाषाओँ की बहुत बड़े स्तर पर अनदेखी होती रही है. वैसे तो सरकार की तरफ से विभिन्न स्तरों पर राजभाषा के विस्तार और उपयोग को बढ़ाने के लिए लगातार ही काम किये जाते रहते हैं पर जिस स्तर पर इसमें आम जनमानस की भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए अभी तक वह नहीं हो पाया है और और सरकारी कामों में हिंदी केवल एक विशेष भाषा ही बनकर रह गयी है.भारत जैसे देश में जहाँ भाषायी विविधता बहुत अधिक है यदि सभी प्रचलित स्थानीय भाषाओं के साथ हिंदी का सही समन्वय नहीं किया जायेगा तो किस तरीके से अन्य भारतीय भाषा भाषी लोगों को कैसे एक मंच पर लाया जा सकेगा. निश्चित तौर पर देश की आधिकारिक भाषा का अपना महत्व होता है पर किसी भी परिस्थिति में केवल सरकारी आयोजनों तक हिंदी को छोड़ देने से उसकी स्वीकार्यता और प्रभाव कैसे बढ़ सकता है ? भाषाओं पर राजनीति के स्थान पर उनके बेहतर समन्वय पर बातचीत होनी चाहिए क्योंकि उस मार्ग पर चलकर ही आगे दूर तक चला जा सकता है.
उत्तर भारत के हिंदी भाषी राज्यों में कुछ हद तक हिंदी के प्रति वैसी ही कट्टरता पायी जाती है जैसी दक्षिण भारत में हिंदी के खिलाफ दिखाई देती है तो इस विषय को सही तरीके से सुलझाने के स्थान पर कुछ भी करने से काम नहीं चलने वाला है. अच्छा हो कि देश में दो भाषाओँ का ज्ञान आवश्यक कर दिया जाये जिसमे हर विद्यार्थी को अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त किसी अन्य क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा को सीखना अनिवार्य किया जाये जिससे केवल दक्षिण भारतीयों पर हिंदी थोपने के आरोप स्वतः समाप्त हो जायेंगे और देश के नागरिकों को देश की अन्य भाषाओँ के बारे में जानने के अवसर भी मिल जायेंगें. मातृभाषा बिना किसी मेहनत के सीखी जा सकती है पर अन्य भाषाओं को सीखने से जहां विभिन्न भारतीय भाषाओँ के बीच बेहतर तालमेल बनाने में मदद मिलेगी वहीं लोगों के परस्पर संवाद में भी सुधार होने की संभावनाएं भी बढ़ जायेंगीं. अपनी भाषा को दूसरे पर थोपने के स्थान पर पहले दूसरी भाषा सीखने को प्राथमिकता दी जानी चाहिए जिससे सभी भाषाओँ के समुचित सम्मान और प्रसार की व्यवस्था को सही तरीके से सुधारा भी जा सके और केवल सरकारी स्तर पर उलटे सीधे फैसले लेने के स्थान पर सही दिशा में बढ़ने के बारे में सोचा जा सके.
पूरे देश और दुनिया में हिंदी का जितना प्रसार भारतीय सिनेमा और टीवी ने किया है उतना सरकारें मिलकर भी नहीं कर सकी हैं क्योंकि हिंदी फिल्मों में नायकों के उदय होने के साथ जिस तरह से उनके प्रति दीवानगी बढ़ी तथा बहुत सारे उन क्षेत्रों में भी उनकी लोकप्रियता पहुंची जहां तक हिंदी का पहुंचना मुश्किल था तो उसके योगदान को किसी भी तरह से कम करके नहीं आँका जा सकता है. यह वह कला और मनोरंजन का क्षेत्र है जिसने लाखों लोगों को हिंदी के शब्दों से परिचित किया और वह आज उनके काम भी आ रहा है. भाषाएँ जटिलता के स्थान पर समरसता के साथ आगे बढ़ सकती हैं पर जिस तरह से कई बार भाषाओँ को थोपने का प्रयास किया जाता है उसके समर्थन से मामले बिगड़ भी जाते हैं. आज कम्प्यूटर के युग में इस तरफ ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है कि सरकार और भाषायी विविधता पर काम कर रहे अन्य संगठन भी इसी तरह से अपने को आगे बढ़ाने की कोशिशें करें जिससे दबाव के स्थान पर सहयोग को प्राथमिकता दी जा सके. सुदूर क्षेत्र की दूसरी भाषा जानने वाले लोगों को नौकरियों में कुछ प्राथमिकता देकर भी भाषाओँ की विविधता का पोषण किया जा सकता है मातृभाषा और स्थानीय बोलचाल की भाषा के अतिरिक्त हर बच्चे के लिए यदि एक और भाषा के बारे में व्यवस्था की जा सके तो इस परिदृश्य को बदलने में सहायता मिल सकती है.

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