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कश्मीर – वार्ता का अवरोध

***.......सीधी खरी बात.......***
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जुलाई माह से ही घाटी के लोगों समेत पूरे देश के लिए समस्या बना हुआ कश्मीर अपने आप में ऐसे सवाल खड़े कर देता है जिससे पार पाने के लिए केवल राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक स्तर पर ही वार्ता से काम नहीं चलने वाला है क्योंकि जून का टूरिस्ट सीज़न बीतने के बाद और अमरनाथ यात्रियों की संख्या में बंद के चलते अभूतपूर्व गिरावट के बाद अब आम कश्मीरियों के सामने रोज़ी रोटी का संकट भी आ गया है. अपनी खूबसूरती के लिए पूरी दुनिया में मशहूर कश्मीर आज जिस तरह से कुछ कारणों से केवल चंद लोगों के अराजक हाथों में बंधक बना हुआ है वह निश्चित तौर पर चिंता का विषय भी है क्योंकि इससे वहां पर सम्पूर्ण काम एक तरह से ठप ही हो गया है. बच्चों की पढ़ाई सबसे अधिक प्रभावित हो रही है क्योंकि आने वाले समय में इन दो महीनों के नुकसान की भरपाई कर पाना अपने आप में संभव नहीं होने वाला है तो जो बच्चे प्रतियोगी और बोर्ड की परीक्षाओं के लिए तैयारी कर रहे हैं उनके लिए सबसे बड़ी समस्या सामने आने वाली है. अपने बच्चों के भविष्य को देखते हुए अब यह घाटी के लोगों की ज़िम्मेदारी बनती है कि स्थितियों को सामान्य करने के लिए वे हर स्तर पर प्रयास करके मुद्दे का हल खोजने का प्रयास करें.
आमतौर पर केंद्र और राज्य सरकार की तरफ से किये जाने वाले प्रयासों को गलत तो नहीं कहा जा सकता है पर जिस तरह से घाटी और जम्मू क्षेत्र से अपने प्रभावों के कारण पीडीपी और भाजपा को अपने वोट बैंक को सुरक्षित रखना एक बड़ी चुनौती है वहीं अब शांति बहाली के लिए दोनों जगह सरकार में शामिल होने के कारण भाजपा पर दोहरा दबाव बन रहा है. कश्मीर समस्या के शुरू होने से अभी तक जिस तरह का भाजपा का स्टैंड रहा करता था अब केंद्र में उसकी पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद उस पर अमल कर पाना एक बहुत बड़ी चुनौती के रूप में सामने आ रहा है क्योंकि सत्ता बनाये रखने के लिए भाजपा को पीडीपी की ज़रुरत है पर यही ज़रुरत उसकी जम्मू क्षेत्र में राजनैतिक संभावनाओं पर ग्रहण सा लगाती दिखती है. अभी तक भाजपा कश्मीर मुद्दे पर केवल केंद्र सरकारों पर आरोप ही लगाया करती थी पर अब जब उसे कार्यवाही करने के लिए स्वयं ही निर्णय लेना है तो वह कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं दिखाई दे रही है. भाजपा समर्थित सोशल मीडिया टीम जिस तरह से इन मुद्दों को लेकर सोशल मीडिया पर उग्र भाषा का समर्थन करते हुए देखे जाते हैं उसके बाद अब भाजपा पर अपनों का भी दबाव बढ़ता जा रहा है और परिस्थितियां कुछ ऐसी बिगड़ती जा रही हैं कि उनसे निपटने का कोई रास्ता सामने नहीं दिखाई दे रहा है.
दबाव या स्वेच्छा में जिस भी कारण से मोदी सरकार ने जिस तरह से आनन फानन में केंद्रीय सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल को घाटी भेजने और उसके माध्यम से कुछ हासिल करने की आधे अधूरे मन से जो कोशिश की उसका कोई परिणाम निकलना भी नहीं था क्योंकि संभवतः सरकार यह दिखाना चाहती थी कि वह तो सभी पक्षों से संविधान के दायरे में रहकर बात करने को तैयार है पर अलगाववादी ही बात नहीं करना चाहते हैं. इतने संवेदनशील मुद्दे पर राष्ट्रभक्ति में अधिक ओतप्रोत होते हुए हमारे कुछ न्यूज़ चैनल भी जिस तरह की ख़बरें और फीचर प्रसारित कर रहे हैं उनसे भी घाटी में कोई सकारात्मक सन्देश नहीं जा रहा है इसलिए अब समय आ गया है कि इस मसले पर इस तरह की दबाव वाली नीति का सभी पक्ष त्याग करें और घाटी के हित में ठोस वार्ता पर आगे बढ़ें. मुद्दे का समाधान तब तक नहीं हो सकता है जब तक वहां के सभी पक्ष खुले मन से आगे नहीं आयेंगें बेशक हुर्रियत के बारे में केंद्र कुछ भी राय रखे पर उनकी तरफ से बंद बुलाये जाने पर आम लोग बाहर निकलना भी नहीं चाहते हैं जिससे उनकी मंशा तो पूरी हो जाती है और बेरोज़गार युवकों को पाकिस्तान से प्रायोजित फण्ड के माध्यम से प्रतिदिन के हिसाब से भुगतान भी मिलता रहता है. निश्चित तौर पर बातचीत तो भारतीय संविधान के दायरे में ही होगी पर अब केंद्र के सामने वह रास्ता खोजने की चुनौती है जिसके माध्यम से सभी पक्षों को बातचीत के लिए एक मंच पर लाया जा सके.

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