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अनुपयुक्त सेस और विकास

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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२०१४ के बाद प्रस्तुत किये लगभग हर बजट में मोदी सरकार के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने देश में विकास और कल्याण कार्यक्रमों के लिए धन की कमी की बातें कहकर सेस लगाने के साथ सर्विस टैक्स को लगातार बढ़ाने का काम भी किया है. राज्य सरकारों की तरफ से जहाँ लगातार इस बात की शिकायत की जा रही है कि उन्हें पूर्व की तरह धन नहीं मिल पा रहा है जिससे विभिन्न कार्यों को करवाने में समस्याएं सामने आ रही हैं वहीं केंद्र सरकार का यह कहना है कि उसके पास कोष में धन की कमी है क्योंकि पिछली सरकार के कारण देश आर्थिक रूप से कमज़ोर हो चुका है. यदि राजनीति से अलग होकर आर्थिक स्तर पर देश की सेहत को देखा जाये तो ऐसा कुछ भी नहीं सामने आ रहा है जिससे देश में किसी बड़े वित्तीय संकट का आभास मिलता हो हाँ अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के चलते कुछ उतार चढ़ाव पहले की तरह ही लगातार दिखाई दे रहे हैं. यदि बात सेस की हो तो सरकार को एक वर्ष में ७१,९५८.२ करोड़ रूपये मिले पर लगातार बहुत काम करने की बातें करने वाली सरकार भी इसमें से केवल २८,११२.७३ करोड़ रूपये ही खर्च कर सकी और ४३,८४५.४७ करोड़ रूपये उससे खर्च ही नहीं किये गए ? राज्यों को केंद्र की तरफ से यह बताया जाता है कि उसके पास धन की कमी है जबकि वास्तविकता में उसके पास इतना धन अनुपयुक्त रूप से पड़ा हुआ है जो जनता से सीधे सेस के नाम पर वसूला गया है.
सेवा कर और सेस में यही मूल अंतर है कि एकत्रित किये सेवाकर में राज्यों के योगदान के अनुसार केंद्र उनको उनका हिस्सा देने को बाध्य होता है जबकि सेस के रूप में लिए गए धन को खर्च करने के लिए केंद्र सरकार अपने अनुसार निर्णय ले सकती है. हालाँकि नियमानुसार जिस मद का सेस हो उसे उसमें ही खर्च किया जाना चाहिए पर आम तौर पर सरकार इसमें में हेरफेर कर अपने अनुसार गुपचुप परिवर्तन कर लेती है क्योंकि हर वित्तीय निर्णय का न तो खुलासा होता है और न ही संसद में इससे सम्बंधित प्रश्न पूछने की कोशिश सांसदों द्वारा की जाती है. इस अनुपयुक्त सेस के बारे में अब राज्यों की तरफ से केंद्र से अपने लिए धन के आवंटन की मांग की जा रही है वहीं केंद्र इसको देने के लिए अनिच्छुक ही दिखाई दे रहा है ऐसी स्थिति में अब इस धन को किस तरह से जनता के कल्याण और विभिन्न मदों में किस तरह से सही रूप में खर्च किया जा सकता है यह सोचने का समय किसी के पास नहीं है. राज्यों की तरफ से केन्द्रीय सहायता में कटौती की बातें की जा रही हैं तो केंद्र धन ही न होने का बहाना बनाने जुटा दिखाई दे रहा है अब इस अवरोध का कुछ सही निर्णय किया जाना चाहिए क्योंकि इससे सबसे अधिक नुकसान देश और नागरिकों का ही हो रहा है.
राज्यों को धन की कटौती करने के पीछे मोदी सरकार का यह तर्क भी रहा करता है कि सही योजनाओं के अभाव में इस धन में भ्रषटाचार बहुत अधिक होता है तो दो वर्षों में सरकार की तरफ से इस संस्थागत संगठित भ्रष्टाचार से निपटने के लिए क्या प्रभावी कदम उठाए गए हैं यह भी स्पष्ट नहीं है. सभी राज्यों में वित्तीय दुरूपयोग को स्वीकार करते हुए सबसे पहले केंद्र सरकार ने ग्रामीण परिवेश में परिवर्तन करने वाली और भारत की आर्थिक प्रगति के चक्के को लगातार घुमाये रखने वाली मनरेगा जैसी महत्वपूर्ण योजनाओं में कटौती की पर जब दो सालों में उसका पहले से ही सुस्त अर्थ व्यवस्था पर कुप्रभाव पड़ा तो सरकार ने इस वर्ष मजबूरी में उसके आवंटन को बढ़ाया भी है. यह सही है कि केंद्र और राज्य स्तर के बजट आवंटन को खर्च करने में आज भी काफी हद तक भ्रष्टाचार फैला हुआ है पर योजना आयोग की जगह बनाये गए नीति आयोग के पास क्या कोई ऐसा विचार है जिससे इस भ्रष्टाचार को कम किया जा सके ? विभिन्न सेस लगाकर देश के खजाने को भरने और राज्य सरकारों पर शक़ करने से ही देश का विकास संभव नहीं है अब समय आ गया है कि केंद्र राज्यों के साथ मिलकर देश की आर्थिक प्रगति को और तेज़ करने के लिए गंभीर प्रयास शुरू करे जिससे इकठ्ठा किये गए सेस का सदुपयोग देश के विकास में किया जा सके.

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