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आर्थिक नीतियों पर स्वामी का प्रहार

***.......सीधी खरी बात.......***
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शुरुवात से ही विवादों में रहने वाले और विभिन्न दलों में अपनी निष्ठाएं समर्पित करने के बाद आजकल सुब्रह्मण्यम स्वामी भाजपा की तरफ से राज्यसभा में सांसद के तौर पर अपनी पारी शुरू कर चुके हैं. राजनीति में सदैव ही इस तरह के लोगों को हर सरकार अपने साथ रखना पसंद करती है जिनके माध्यम से वह पार्टी और सरकार के साथ देशी विदेशी मुद्दों पर पार्टियों की अंदरूनी बातों को बिना लाग लपेट सामने रख सकती हो और जिससे पार्टी और सरकार को किसी भी तरह का नुकसान भी न होता हो. स्वामी इस कड़ी में सबसे ताज़ा उदाहरण के रूप में देश के सामने हैं क्योंकि जिस तरह से देश में कांग्रेस द्वारा शुरू की गयी सुधारात्मक आर्थिक नीतियों को वित्त मंत्री अरुण जेटली पूरी आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं उससे यही लगता है कि मोदी भाजपा और स्वदेशी जागरण मंच के साथ बाबा रामदेव के आर्थिक मामलों पर पूरी तरह से सहमत नहीं है और इसी क्रम में अब सरकार के दो साल पूरे होने के बाद मोदी पर इस बात का भी दबाव है कि उनकी सरकार वास्तव में अर्थिक सुधारों को परिणाम के साथ सामने लाये या फिर इन सुधारों पर रोक लगायी जाये.
देश में कोई कुछ भी कहता रहे पर भाजपा सरकार पर संघ की तरफ से सदैव ही दबाव बन रहता है कि उसके मनपसंद चेहरों को हर परिस्थिति में सरकार और पार्टी में फिट किया जाता रहे स्वामी के मामले में मोदी ने उन्हें सरकार में लेने के स्थान पर राज्यसभा तक पहुंचा कर संघ की बात तो रख ली पर पहले ही दिन से जिस तरह से स्वामी ने रिज़र्व बैंक के गवर्नर राजन पर लिखित हमला शुरू किया उसकी उम्मीद मोदी को भी नहीं थी पर अब जब स्वामी खुलेआम संसद में हैं तो उनको रोक पाना किसी के बस की बात भी नहीं है. देश के लिए नीतियां बनाने का काम करने वाले हर व्यक्ति को यदि उनकी तरफ से सरकार विरोधी साबित किया जाने लगेगा तो आने वाले समय में यही अधिकारी सरकार के हर अच्छे प्रयास को भी पलीता लगाने से बाज़ नहीं आने वाले हैं. देश के शीर्ष अधिकारियों पर कांग्रेस समर्थक होने का आरोप लगाकर जिस तरह से उनकी लिस्ट की बात स्वामी द्वारा की जा रही है आज उनकी क्या आवश्यकता है ? संसद का मानसून सत्र जीएसटी बिल पर निर्णायक हो सकता है उसके पहले इस तरह की अनावश्यक बातों से सरकार को क्या हासिल होने वाला है यह तो समय ही बतायेगा पर इसमें और देर होना अब देश व सरकार के हित में भी नहीं है.
स्वामी जिस तरह से राजन के बाद सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रह्मण्यम को भी हटाने की बात करने लगे हैं तो उससे देश और विदेशों में सरकार की आर्थिक नीतियों के बारे में क्या सन्देश जाने वाला है यह जेटली और मोदी दोनों को पता है. स्वामी के बहाने से संघ में मोदी की कांग्रेसी आर्थिक नीतियों को ही और तेज़ी से आगे बढ़ाने की सोच का विरोध करने वाले लोगों के पास स्वामी ही एकमात्र चारा बचे हुए हैं जिनके माध्यम से वे विभिन्न मंचों पर सरकार को असहज करने का काम कर सकते हैं. २०१४ के चुनावों में संघ ने यह सोचा था कि मोदी को बहुमत के लिए कुछ सीटों की आवश्यकता पड़ेगी तो संघ अपने प्रयासों से मोदी पर दबाव की राजनीति भी कर सकेगा पर उसका उलट हो जाने से मोदी पर संघ कभी कोई विशेष दबाव नहीं बना पा रहा है. अपने मातृ संगठन के साथ तारतम्य बैठाना मोदी की मजबूरी है क्योंकि अभी भी विभिन्न राज्यों में पार्टी के कमज़ोर कैडर को सँभालने के साथ चुनावी विजय के लिए भाजपा को संघ की सदैव ही आवश्यकता पड़ने वाली है. अब समय आ गया है कि मोदी खुद ही स्वामी को बुलाकर यह बात स्पष्ट रूप से समझा दें कि उनकी तरफ से इस तरह की राजनीति का किसी भी स्तर पर समर्थन नहीं किया जा सकता है और देश के लिए वैश्विक चुनौतियों से जूझने के लिए जिन उपायों की आवश्यकता है उस पर सरकार आगे बढ़ने ही जा रही है जिससे सरकार के अंदर की इस तरह की दोहरी बातों से अर्थिक जगत पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े.

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