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मानवजनित सूखा या प्राकृतिक आपदा

***.......सीधी खरी बात.......***
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आईपीएल में मैदानों के रख रखाव के बहाने जिस तरह से महाराष्ट्र में सूखे का मुद्दा पूरे देश के सामने आया है वह निश्चित तौर पर सही तरीका तो नहीं कहा जा सकता है पर देश में जनता, सरकार और प्रशासन का गम्भीर मुद्दों पर जिस तरह से अनमना सा रुख ही रहा करता है उस स्थिति को सामने लाने का इससे बेहतर तरीका और हो भी नहीं सकता था. देश के हर हिस्से में हरित क्षेत्र को जिस तरह से वन माफियाओं और सरकारी अधिकारियों के गठजोड़ से लगातार साफ़ किया जा रहा है यह प्रारंभिक परिणाम उसी दिशा की तरफ संकेत करता है क्योंकि हज़ारों वर्षों से देश में वर्षा जल संचयन की जो प्रक्रिया अपनाई जाती रहती थी आज उस पर भूमि की बढ़ती कीमत के चलते अनुपालन करना पूरी तरह से बंद कर दिया गया है जिससे उन क्षेत्रों में भी भूजल लगातार नीचे खिसकता जा रहा है जहाँ जल की कभी भी समस्या ही नहीं रही है. पांच नदियों के राज्य पंजाब में खेती के लिए अनियंत्रित भूजल दोहन से परिस्थितियां कितनी विपरीत हो गईं हैं सभी को पता है फिर भी आज तक देश में भूजल भण्डारण और उनके उपयोग से सम्बंधित कोई भी सही योजना नहीं बनायीं जा सकी है.
सरकारें किस तरह से काम करती हैं इसका सबसे बड़ा उदाहरण महाराष्ट्र ही है क्योंकि आज देश में इसी राज्य में सबसे अधिक बांधों का निर्माण किया गया है क्योंकि सरकारी सोच यही रही कि इस तरह के बांध बनाकर वर्षा के पानी को आसानी से संचित किया जा सकता है पर वन विभाग ने कभी भी अपनी ज़िम्मेदारी की तरफ ध्यान ही नहीं दिया जिसके माध्यम से पूरे प्रदेश में वन क्षेत्र को बढ़ाये जाने की कोशिशें भी होनी चाहिए थीं. आज जब मराठवाड़ा की धरती पर हरे पेड़ ही नहीं बचे हैं तो आखिर किस तरह से बादलों को वे परिस्थितियां मिल सकती हैं जिनमें वे वर्षा किया करते हैं और इन परिस्थितियों को सही दिशा में सुधारने के स्थान पर सभी दलों की सरकारों और प्रशासन का ध्यान पूरी तरह से केवल इस बात पर ही रहता है कि किस तरह से सभी को भ्रष्टाचार में लिपटी हुई सूखा राहत सामग्री का वितरण किया जाये. यह सही है कि पीड़ित लोगों के लिए तात्कालिक उपाय भी किये जाने चाहिए पर वे उपाय इतने सतही भी नहीं होने चाहिए जिनसे कुछ भी स्थायी रूप से हासिल न किया जा सके. ग्रामीण गारंटी योजना के माध्यम से बड़े बांधों के स्थान पर गांवों में छोटे तालाब और कुंए खोदने का काम किया जाना चाहिए जिससे आने वाले वर्षों में वर्षा होने पर उसके माध्यम से भूगर्भीय जल के स्रोतों को पुनर्जीवित किया जा सके.
यदि ध्यान से देखा जाये तो आज ऐसी ही स्थिति देश के हर राज्य में दिखाई देने लगी है बड़े शहरों में तो स्थिति और भी निराशाजनक ही दिखाई देती है क्योंकि उनके अनियंत्रित विकास के दौर में हमारे वे गांव भी समाप्त होते जा रहे हैं जिनके माध्यम से कभी पर्यावरण संबंधी चिंताओं को समझे बिना ही पडोसी शहर पूरा लाभ भी उठा लिया करते थे. कानून के बनाए जाने से ही समस्या का हल नहीं हो जाता है और भूगर्भीय जल के दोहन और रिचार्जिंग पर अब सभी को गम्भीरता से सोचना ही होगा क्योंकि आधुनिकता और विकास के लिए आवश्यक बिजली बनाए जाने के लिए जिस तरह से सदा नीरा नदियों पर तेज़ी से बांध बनाए जा रहे हैं उनके चलते आने वाले समय में इन नदियों में पानी ही नहीं होगा और इसी कारण से नदियों के किनारे के प्राकृतिक जल स्रोत जो नदियों को मैदानों में भी जीवित रखने का काम किया करते हैं वे अपने आप ही सूखते जा रहे हैं. देश में कड़े कानूनों के बाद भी सभी लोग इस तरह के अनैतिक कार्यों को करने के लिए जुगाड़ तलाश ही लेते हैं और सरे आम कानून और प्रशासन की आँखों में धूलझोंक कर अपने काम करते ही रहते हैं. इस बारे में अब देश के हर नागरिक को भी जागरूक होना पड़ेगा तभी पूरे देश के जल संकट से सही तरह से निपटा जा सकता है अन्यथा कोई भी व्यवस्था जुगाड़ लगाकर देश को हर स्तर पर नुकसान पहुँचाने का काम ही करने वाली है.

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