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सूखा -जल संकट और सरकार

***.......सीधी खरी बात.......***
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मुंबई हाई कोर्ट में दायर एक याचिका के चलते पूरे देश का ध्यान अचानक से ही उस सूखे की तरफ हो गया है जिसके कारण पिछले साल केवल महाराष्ट्र में ही ३८०० किसानों ने आत्महत्या कर ली फिर भी पूरे देश के समाज पर उसका कोई असर नहीं दिखाई देता है और ये आंकड़े केवल विधानसभाओं और लोकसभा में सरकारी बयान से अधिक ख़बरों में स्थान नहीं बना पाते हैं. इस प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए सरकारी स्तर पर किये जा रहे प्रयासों से असंतुष्ट एनजीओ लोकसेवा ने अपनी बात को जनहित याचिका के माध्यम से कोर्ट तक पहुँचाने का काम किया है. इस मामले में कोर्ट की तरफ से सख्त रुख अपनाए जाने के बाद आईपीएल के मैच महाराष्ट्र में कराये जाने पर भी एक तरह से संकट ही उत्पन्न हो गया है. लोकसत्ता का कहना है कि जिस राज्य के इतने सारे जिले कई वर्षों से सूखे की चपेट में हैं क्या उस राज्य में क्रिकेट स्टेडियम की पिचों और मैदान के रख रखाव के लिए हर तीसरे दिन किसी भी तरह का लाखों लीटर पानी इस्तेमाल किया जाना उचित कहा जा सकता है ? सरकार और क्रिकेट संस्थाओं के लिए चिंता की बात यह है कि इस मसले पर हाई कोर्ट उनसे कड़े सवाल कर चुका है और उसे उनके जवाब भी चाहिए हैं.
यह सही है कि इस तरह की प्राकृतिक समस्याओं पर किसी का कोई ज़ोर नहीं चलता है पर क्या सरकार और उसकी मशीनरी ऐसे उपाय भी नहीं कर सकती है जिनके दूरगामी परिणामों के माध्यम से इन क्षेत्रों के संकट को पूरी तरह से भले ही कम न किया जा सके पर कम से कम इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को थोड़ी राहत तो पहुंचाई ही जा सके ? सूखा प्रभावित लगभग १२ राज्यों के लिए आज भी केंद्र और राज्य सरकारों के पास कोई स्पष्ट दीर्घकालिक योजना नहीं दिखाई देती है क्योंकि इस दुष्प्रभाव का सही आंकलन करने के स्थान पर सरकारों का ध्यान सदैव की तरह केवल राहत सामग्री बांटकर अपने कर्तव्य को पूरा मान लेने की प्रवृत्ति पर ही रहा है. आखिर इन राज्यों में पड़ने वाले सूखे का पर्यावरण असंतुलन से क्या वास्ता है और उसके बारे में उच्च वेतन पाने वाले सरकारी पर्यावरण और कृषि विशेषज्ञ क्या कहते हैं ? क्यों देश की नदियों को विकास के नाम पर चूसकर सुखाया जा रहा है और क्यों लगभग हर राज्य और हर क्षेत्र में प्राकृतिक जल स्रोतों के साथ इतने बड़े पैमाने पर छेड़छाड़ की जा रही है क्यों कानून व्यवस्था को सँभालने वाले लोग इतना भी नहीं देख पाते हैं हैं और सरकारें किसी भी दल की हों पर इस तरह एक काम सबकी सरकारों में आखिर कैसे अनवरत रूप से चलते रहते हैं ?
देश के संसाधनों का अंधाधुंध दोहन और असंगत विकास आज ही हमारे प्राकृतिक संसाधनों को बिखेरने का काम शुरू कर चुका है तथा आज भी हम जनता के रूप में और हमारी सरकारें सत्ता संचालकों के रूप में इस दिशा में कुछ भी कर पाने में असफल ही साबित हुई हैं. हमारे आसपास के प्राकृतिक जल स्रोतों पर किस तरह से कब्ज़े किये जा रहे हैं यह सभी को पता है पर इस बारे में किसी के भी इतनी हिम्मत नहीं है कि वह किसी भी स्तर पर कोई आवाज़ ही उठा सके. देश के समग्र विकास की बातें करने वाले सभी दलों के नेता जिस तरह से पर्यावरण को लगातार ही चोट पहुंचाते रहते हैं उस परिस्थिति में कुछ भी कैसे सही किया जा सकता है ? देश में पर्यावरण और जल संसाधन को एक नयी राष्ट्रीय नीति की आवश्यकता है जिससे उस पर एक केंद्रीय संस्था की निगरानी संभव हो सके क्योंकि विभिन्न राज्यों में विभिन्न दलों की सरकारें अपने चहेते उद्योगपतियों के लिए कभी भी नियमोंं से छेड़छाड़ करने से नहीं चूकते हैं. इन मसलों में पूरी तरह से असफल हमारी व्यवस्था को अब स्थायी रूप से एक नीति के अंतर्गत लाना आवश्यक है और इस संस्था के क्षेत्रीय कार्यालय भी खोले जाने चाहिए जिससे आम लोगों और क्षेत्रीय स्तर पर काम करने वाले उद्योगपतियों को अनावश्यक रूप से अपनी समस्याओं से निपटने के लिए एक जगह पर ही भागदौड़ से बचाया जा सके.

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