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देश की प्राथमिकताएं

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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देश अपने स्वरुप में किस तरह की राजनीति का शिकार हो रहा है यह आज के नेताओं के बयानों को देखने से स्पष्ट हो जाता है क्योंकि अधिकांश मामलों में हमरे नेता जिस हद तक गैर-जिम्मेदाराना रवैया अपनाने लगे हैं उससे कहीं न कहीं उन शक्तियों को ही प्रश्रय मिलता है जो इस तरह की गतिविधियों में अक्सर ही शामिल रहा करते हैं. इशरत जहाँ, अफज़ल गुरु या फिर जेएनयू का मामला हो हमारे सभी दलों के नेता किस हद तक जाकर कुछ भी कहने से परहेज़ नहीं करते हैं यह देखना दुर्भाग्यपूर्ण और चिंताजनक भी है क्योंकि ऐसा भी नहीं है कि इन नेताओं को इन बातों की गंभीरता का अंदाज़ा नहीं रहा करता है फिर भी वे जानबूझकर इस तरह के बयानों को दिया करते हैं जिसका कोई मतलब नहीं है. इशरत जहाँ को फ़र्ज़ी मुठभेड़ में मारा गया और देश में सैकड़ों फ़र्ज़ी मुठभेड़ें होती रहती हैं देश के कानून ने केवल इस बात को ही स्पष्ट किया है कि किसी भी दोषी को इस तरह से सजा नहीं दी जा सकती है और इशरत जहाँ का आतंकी कनेक्शन साबित होना अभी भी शेष ही है पर सभी बिना कानून की परवाह के ही कुछ भी कहने से बाज़ नहीं आ रहे हैं.
देश के हर दल के नेताओं ने अपने वोट बैंक की सुरक्षा के लिए समय समय पर देश का कानून और न्यायालयों का खुला मज़ाक उड़ाया है इसलिए किसी भी दल द्वारा जब कानून के अपने काम करने की बात कही जाती है तो उससे बड़ा उपहास कोई भी नहीं हो सकता है. देश की आज़ादी के बाद जो पीढ़ी तैयार हुई उसने आज़ादी का वो संघर्ष केवल सुना ही था इसलिए वह आसानी से किसी भी बात को मान लेने की स्थिति में पहुँच चुकी है उन्हें विचारधारा के नाम पर आज़ादी के संघर्ष को भी झूठी तरह से प्रचारित कर सिखाया जा रहा है जिससे आज देश की पीढ़ी के सामने इस बात का संकट भी है कि वह किस इतिहास को सही मानते हुए उस पर यकीन करे ? राजनैतिक विरोधों के चलते क्या देश के उस इतिहास को पुनर्भाषित किया जा सकता है जो अंग्रेज़ों से लोहा लेते हुए देश ने पूरी जीवंतता के साथ जिया था और जिसके बल पर देश को आज़ादी भी मिली थी ? आज स्थिति यह हो चुकी है कि कोई भी नेता और अधिकारी पुरानी बातों को लेकर कुछ खुलासे करने से नहीं चूकते हैं जबकि वे उस समय उस बात का कोई विरोध नहीं करते जब वे पदों पर बैठे होते हैं ?
अगर गंभीरता से विचार किया जाए तो ये लोग जिस गोपनीयता के नाम पर कुछ भी सही गलत सत्ता में रहते हुए छिपा लिया करते हैं सत्ता जाने के बाद किन कारणों से उसको सार्वजनिक करने लगते हैं तो सब समझ में आ जायेगा. पहले पदों को बचाये रखने के लिए ये बेशर्मी से अपने पदों से चिपके रहते हैं और समय बीत जाने के बाद अचानक ही इनमें छिपा हुआ जमीर जाग जाता है जो टीवी या समाचार पत्रों में इनके बयानों के साथ सामने आता है. कोई भी व्यक्ति अब देश की आज़ाद हवा में रह रहा है और यदि पद पर रहते हुए उसे लगता है कि कोई काम कानून के अनुसार सही तरीके से नहीं किया जा रहा है तो वह उसके खिलाफ आवाज़ तो उठा ही सकता है यह भी संभव है कि सत्ता के साथ संघर्ष करना उतना आसान न हो तो क्या वह अपनी जानकारी में आई हुई इन सूचनाओं को देश के सर्वोच्च न्यायलय के प्रधान न्यायाधीश के संज्ञान में नहीं ला सकता है जहाँ से उसे पूरी तरह से मामला ख़त्म होने तक सुरक्षा की गारंटी भी मिल जाएगी और वह देश के विरुद्ध होने वाली किसी भी गतिविधि को सबके सामने लाने में सक्षम भी हो सकेगा पर अधिकंश मामलों में यह सब केवल दिखावे से अधिक कुछ भी नहीं लगता है.

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