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राजद्रोह से राजनीति तक

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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हमारे देश के उच्च शिक्षण संस्थानों की क्या हालत है यह आज किसी से भी छिपा नहीं है क्योंकि जब से राजनीति में किसी भी प्रकार से कुछ भी करते हुए आगे बढ़ने की प्रवृत्ति शुरू हुई है और उसे विभिन्न दलों के बड़े नेताओं का समर्थन भी मिलने लगा है उससे यही लगता है उच्च स्तर की राजनीति में व्याप्त विद्वेष ने अब छात्रों की राजनीति पर भी असर दिखाना शुरू कर दिया है. जेएनयू मामले में जिस तरह से दिल्ली पुलिस की लापरवाही सामने आ रही है उससे यही लगता है कि उसने पुलिसिंग के उन सामान्य तरीकों पर भी ध्यान नहीं दिया जो किसी भी पुलिस बल या कर्मी को आगे ले जाने का काम किया करते हैं. देश के किसी भी हिस्से में किसी के भी द्वारा देश विरोधी हरकत को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है पर इस तरह के मामलों से सही तरह से निपटने के स्थान पर आज जिस तरह से हर दल अपने क्षुद्र राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति में लगा हुआ है उससे देश का किस हद तक भला होने वाला है यह कोई नहीं बता सकता है. जिस घटना को लेकर पूरे देश में उबाल है उसको आयोजित करने वाला उमर खालिद घटना के बाद भी टीवी डिबेट में भाग लेता रहा और दिल्ली पुलिस केवल कन्हैया के पीछे ही पड़ी रही जिससे आज उसे खालिद के लिए लुकआउट नोटिस जारी करना पड़ रहा है ?
दिल्ली पुलिस ने इस मामले में अपनी उस दक्षता का प्रदर्शन नहीं किया जिसके लिए वो जानी जाती है पुलिस कमिश्नर भीमसेन बस्सी २८ फरवरी के बाद सूचना आयुक्त के पद पर सरकार द्वारा चुने जा सकते हैं और किसी भी सेवानिवृत्त हो रहे अधिकारी के लिए इससे अधिक सुखद बात क्या हो सकती है कि उसे दूसरी पारी भी खेलने का अवसर मिल जाये ? आज दिल्ली पुलिस खालिद उमर के दुनिया भर के आतंकी और नक्सली जुड़ावों को खोज चुकी है पर कोई यह क्यों नहीं जानना चाहता है कि जब पाकिस्तान से हवाला से आने वाले पैसे से जेएनयू में कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा था तो हमारी ख़ुफ़िया एजेंसियां क्या कर रही थीं ? गंभीर मामलों को देश में हलके से लेने की प्रवृत्ति बहुत पुरानी है पर इस बार जिस तरह से भाजपा के समर्थकों ने सुप्रीम कोर्ट तक के आदेशों को मानने से इंकार कर दिया है उससे क्या देश में अराजकता बढ़ने के संकेत नहीं मिलते हैं ? सत्ता का विरोध पहले भी होता रहा है और कुछ तत्व सदैव से भारतीय स्वतंत्रता के बाद के ढांचे पर उँगलियाँ उठाते रहे हैं तो क्या उन्हें भी इसी तरह से देशद्रोही करार दिया जा सकता है ? राष्ट्रहित में इस तरह के मामलों में राजनीति का दलीय हित साधने से सम्बन्ध नहीं होना चाहिए पर दुर्भाग्य से हमारे देश में राष्ट्रीय मुद्दों पर भी खुलकर राजनीति की जाती है जिस पर रोक लगायी जानी चाहिए.
इस मामले में नेताओं की तरफ से जो भी गलतियां की गयी हैं उन्हें सुधारने की तरफ बढ़ने की आवश्यकता है क्योंकि इस आपसी वाद-विवाद में वे लोग सुरक्षित रूप से देश से बाहर निकल जाते हैं जो वास्तव में दोषी होते हैं और उनके विभिन कारणों से सहयोगी रहे कुछ लोगों पर केवल संदेह के आधार पर मुक़दमे चलाये जाते हैं जो कुछ वर्षों के बाद कोर्ट द्वारा खारिज कर दिए जाते हैं. यदि कन्हैया के खिलाफ सबूत हैं तो उसे राष्ट्रद्रोह की सजा अवश्य मिलनी चाहिए पर केवल एक राजनैतिक दल के छात्र संगठन का प्रतिनिधि होने के चलते उसे निशाना बनाया जाना कहाँ तक उचित है जिसमें असली दोषी लोग भागने में सफल हो जाएँ ? पूरे देश के विश्वविद्यालयों के लिए इस मुद्दे पर नए सिरे से सोचा जाना आवश्यक भी है क्योंकि देश विरोधी तत्व आसानी से सरकार की नीतियों से असंतुष्ट लोगों के मंचों पर जाकर अपनी बात भी कहने का दुस्साहस करते रहने वाले हैं. ये लोग पहले स्थानीय छात्रों के मुद्दों का समर्थन करते हैं और जब उनका विश्वास पा जाते हैं तो अपने मुद्दों को बीच में लेकर उठाने से नहीं चूकते हैं. इस समस्या से निपटने के लिए अब सभी दलों को अपने छात्र संगठनों को इससे सावधान रहने और उनके चंगुल में उलझने से बचने के लिए आगाह करने की आवश्यकता भी है.

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