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राइट टू एजुकेशन के लाभ-हानि

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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केंद्र सरकार द्वारा एक समय में देश के बच्चों के लिए शुरू किये गए महवपूर्ण कार्यक्रम राइट टू एजुकेशन के चलते राज्यों में भ्रम की स्थिति बनी हुई है जिस कारण इस कानून के लागू होने के इतने वर्षों बाद आज भी राज्य सरकारों को यह नहीं समझ में आ रहा है कि वे इस कानून को आखिर किस तरह से लागू करें जिससे पहले से चल रहे लाखों निजी स्कूलों और उनमें काम करने वाले विभिन्न स्तर के शिक्षकों और कर्मचारियों पर बुरा प्रभाव न पड़े. देश के आर्थिक संसाधनों पर विभिन्न तरह के बोझ डालने वाले अनगिनत उपाय करने के बाद भी आज देश में शिक्षा के स्तर को सरकारी विद्यालयों में सुधारने में कोई सफलता मिलती नहीं दिखाई दे रही है क्योंकि आम लोगों का यही मानना है कि सरकार चाहे जितने भी प्रयास कर ले पर सरकारी स्कूलों की व्यवस्था सुधरने वाली नहीं है. आज भी जिस तरह से विभिन्न राज्यों में नए भर्ती होने वाले सरकारी शिक्षकों और जिला स्तरीय अधिकारियों/ कर्मचारियों से सेटिंग के चलते विद्यालयों से शिक्षक नदारत ही रहा करते हैं तो सरकार की तरफ से इन पर इतने धन को खर्च करने का औचित्य ही क्या है ?
सरकार को इस बात का अधिकार तो है कि वह निचले स्तर की शिक्षा प्रणाली को सुधारने का काम करे पर वह किस स्तर के संस्थानों की कीमत पर किया जा रहा है इस बात पर भी विचार करने की आवश्यकता भी है. देश में साक्षरता बढ़ाई जानी चाहिए और गंभीर शिक्षा को इस औपचारिक रूप से शिक्षित किये जाने वाली शिक्षा से पूरी तरह अलग ही रखा जाना चाहिए क्योंकि सरकार के बहुमूल्य संसाधन इन लोगों को साक्षर करने के लिए खर्च किये जाते हैं पर यह पूरा तंत्र अपनी उपयोगिता को साबित करने में विफल ही साबित होता है. मेधावी छात्र/ छात्राओं के लिए हर पांच कि०मि० की परिधि में एक गुणवत्ता युक्त पूर्व माध्यमिक विद्यालय स्थापित किया जाना चाहिए जिससे उस क्षेत्र के पढाई में लगन से जुटने वाले बच्चों को एक बेहतर माहौल प्रदान किया जा सके इन छात्र/ छात्राओं के लिए उच्च स्तर की शिक्षा व्यवस्था को समुचित रूप से करने के बारे में भी सोचना चाहिए जिससे इनको आगे बढ़ने में कोई कठिनाई भी न हो. साथ ही केवल साक्षर करने और देश के हर व्यक्ति तक साक्षरता पहुँचाने के लिए गांवों में स्थानीय लोगों के सहयोग से विद्यालय भी चलने के बारे में सोचा जाना चाहिए.
देश में शिक्षा का माहौल तब तक नहीं सुधर सकता है जब तक शिक्षकों में पढ़ाने और वास्तव में पढ़ने के इच्छुक बच्चों के लिए अलग तरह की व्यवस्था नहीं की जाएगी. आज के परिवेश में हर गांव में खुले हुए अधिकांश सरकारी स्कूल केवल जनता के धन को लुटाने का साधन ही बने हुए हैं जिनसे शिक्षा के स्तर को सुधारने का कोई भी प्रयास सफल नहीं होता दिखता है. इस परिस्थिति को समझते हुए इसमें अब आमूल चूल बदलाव की आवश्यकता भी है क्योंकि दूर जिलों के शिक्षक पढ़ाने में दिलचस्पी नहीं रखते हैं जिस कारण से भी शिक्षा के स्तर को सुधारा नहीं जा पा रहा है. मिड डे मील को हर विद्यालय में चलाने के स्थान पर ग्रामसभा में एक साँझा चूल्हा जैसी व्यवस्था पर विचार करना चाहिए जिसको सभी के सहयोग से भी चलाया जा सकता है इससे जहाँ विद्यालयों में भ्रष्टाचार कम होगा वहीं दूसरी तरफ सरकार को गांवों के गरीबों के भोजन की व्यवस्था करने में भी सुगमता ही होने वाली है. कोई भी नयी या पुरानी योजना केवल तभी सफल हो सकती है जब उसमें जुड़े हुए लोग ईमानदारी से पूरा काम करने के बारे में विचार कर सकें अन्यथा बहुत अच्छी परियोजनाओं को देश लंबे समय से कुप्रबंधन के कारण दम तोड़ते हुए देख चुका है.

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