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सचिवों के समूह

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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अपनी योजनाओं को तेज़ी से लागू करने के लिए मंत्रियों की कार्यशैली और दिए जा रहे परिणामों से अप्रसन्न होते हुए जिस तरह से पीएम मोदी ने पिछली संप्रग सरकार की तरह ही मंत्रियों के स्थान पर सचिवों के समूहों के गठन की शुरुवात की है उससे यही लगता है कि आने वाले समय में इन सचिवों के माध्यम से मोदी अपने ही नेताओं पर कड़ी लगाम लगाना चाहते हैं जिससे लोकतंत्र में नौकरशाही के ऊपर पर बैठे हुए नेताओं पर भी कुछ अंकुश लगाया जा सके. मोदी सरकार ने सुधारों के तेज़ी से लागू करने के वायदे के साथ जिस तरह से सभी मंत्रियों के समूह बनाये जाने की परंपरा का समापन कर दिया था आज सत्ता चलाने और उसमें भी सामंजस्य बैठाने के लिए खुद उनको ही अपने कदम पीछे खींचते हुए इसी व्यवस्था को फिर से लागू करने के बारे में गंभीरता से सोचने पर मज़बूर होना पड़ा है. समय के साथ आवश्यकताएं बदलती जाती हैं और यदि पीएम को अब यह लग रहा है कि इस तरह से समूह बनाये जाने से देश के लिए बेहतर परिणाम सामने लाये जा सकते हैं तो यह भी सही कदम कहा जा सकता है.
वर्षों पुरानी निरंतरता के साथ जिस तरह से अटल सरकार ने भी मंत्रियों के समूहों को सदैव प्राथमिकता ही दी थी और मनमोहन सरकार ने भी कई विवादित मुद्दों पर इसके माध्यम से विभिन्न मंत्रालयों के बीच सामंजस्य बैठाने में सफलता पायी थी उसे देखते हुए इनको पूरी तरह से अनुपयोगी मानना भी संभवतः मोदी सरकार की एक रणनीतिक चूक ही थी जिसे अब सुधार कर फिर से इस प्रक्रिया को मज़बूत बनाया जा रहा है. यह भी सही है कि पिछली मनमोहन सरकार चूँकि साझा दलों की थी और उसमें भी क्षेत्रीय पार्टियों के बड़े नेताओं का निरन्तर दबाव भी बना रहता था तो उस स्थिति से निपटने के लिए भी कई बार इन समूहों के माध्यम से मुद्दों को टालने की कोशिशें भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती थीं. महज़ कुछ गलत उदाहरणों के चलते पूरी व्यवस्था को परिवर्तित कर देना अपेक्षित परिणामों को सामने नहीं ला पाता है जो मोदी सरकार के इस निर्णय से स्पष्ट हो चुका है. अब समय है कि इन सचिवों के समूहों के निर्णयों के साथ मंत्रियों की सम्मति को भी जोड़ने की कोशिश की जाये क्योंकि कई बार इस तरह के प्रयास नेताओं के अहम के चलते अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाते हैं.
कोई भी राजनेता चाहे वो पीएम हो या सीएम आवश्यकता पड़ने पर अधिकांश बार वो नेता का पक्ष लेता हुआ दिखाई देता है और नीतियों के लाभ का श्रेय खुद लेते हुए अक्षमता को पूरी तरह से अधिकारियों पर ही मढ़ देता है. सचिवों के इन समूहों द्वारा लिये गए निर्णयों पर आगे कौन अंतिम मोहर लगाएगा अब मोदी के सामने यही प्रश्न सबसे बड़ा बनकर उभरने वाला है क्योंकि सरकार गठन के बाद से आज तक अपने को सुरक्षित रखने के प्रयास में मोदी ने पार्टी के अनुभवी नेताओं को एकदम से किनारे कर दिया है उससे उनके मंत्रिमंडल में अनुभव की कमी साफ़ तौर पर झलकती है. खुद पीएम की तरफ से विपक्ष पर जिस तरह से लगातार राजनैतिक चुनावी हमले किये जाते हैं उसका अनुसरण करते हुए अन्य मंत्री व नेता भी उसी तरह की बयानबाज़ी करने में नहीं चूकते हैं जिसका असर भी संसद से सडकों तक दिखाई देता है. पीएम को सबसे पहल अपनी पार्टी के अनुभवी लोगों की क्षमता का भरपूर दोहन करने के बारे में सोचना चाहिए उसके बाद संसद में विपक्षी दलों से भी सही तालमेल बिठाते हुए महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित करवाने के बारे में सोचना चाहिए. मंत्रियों के इन समूहों के साथ नेताओं को भी जोड़ा जाना चाहिए जिससे कोई भी नेता इनके निर्णयों पर बाद में अलग रवैया अपनाता हुआ न दिखाई दे.

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