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बाल अपराधी-सजा, सरकार और समाज

***.......सीधी खरी बात.......***
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निर्भया मामले में अपराध के समय किशोर साबित हुए अवयस्क की तीन साल की सजा पूरी होने के बाद एक बार फिर से जहाँ किशोरों को भी जघन्य अपराध किये जाने की स्थिति में सामान्य कोर्ट में बड़े अपराधियों की तरह ही सजा सुनाये जाने को लेकर बहस तेज़ हो गयी तथा सरकार इतने दबाव में आ गयी कि जो संशोधन एक वर्ष से भी अधिक समय से लंबित था वह निर्भया की माँ के एक दिन के संघर्ष में ही कानून में बदल गया. इस मामले में राजनीति होने की पूरी सम्भावना को देखते हुए जिस तरह से राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष गुलाम नबी आज़ाद ने निर्भया कि माँ को यह आश्वासन दिया कि सदन में मामला आने पर कांग्रेस उसे बहस के बाद तुरंत ही पारित करने में पूरा समर्थन देगी तो ऐसा ही कुछ लोकसभा के लिए भी अपने आप ही हुआ होगाजिसके बाद मेनका गांधी द्वारा इस तरह के संशोेधन का प्रारूप पेश किया गया जिसे देर शाम तक संसद की मजूरी भी मिल गयी है. यहाँ पर यह सवाल भी उठता है कि क्या हमारी संसद में इतना हौसला भी नहीं बचा है कि देश की महिलाओं और बेटियों की सुरक्षा से जुड़े इतने गंभीर मुद्दे पर टाल मटोल करने के स्थान पर स्वयं ही पहल कर कड़े कानून का रास्ता साफ़ कर सके ?
भारत भी उन १९० देशों में से एक है जिसने यूएन कन्वेंशन ओन चाइल्ड राइट्स पर हस्ताक्षर किये हुए हैं जिसके अनुसार बच्चों के अधिकारों की रक्षा करने का दायित्व भी देश की सरकार और देश पर आ जाता है पर क्या आज के बदलते वैश्विक परिवेश में बच्चों के हिंसा की तरफ आसानी से मुड़ने की स्थिति को देखते हुए इस तरह के अपराध में संलिप्त होने पर उसकी समीक्षा सामान्य कानून के अंतर्गत नहीं की जानी चाहिए ? देश और पूरे विश्व के लिए आज यह गंभीर चिंता का विषय भी हो सकता है क्योंकि महिलाओं के खिलाफ अपराधों को यदि छोड़ भी दिया जाये तो भारत में नक्सली और विश्व भर में आईएस जैसे खूंखार आतंकी संगठन धर्म के नाम पर जिस तरह से बच्चों के कोमल मष्तिष्क में जिहाद और हिंसा को ठूंसने में लगे हुए हैं तो क्या आने वाले दिनों में ऐसा नहीं हो सकता है कि विश्व के सभी देशों को इस समस्या से निपटने के लिए अपने इस तरह से बच्चों के अधिकारों में दी गयी छूट को वापस लेने के बारे में सोचना पड़ जाये ? वैश्विक समस्या के लिए समवेत स्वर और प्रयास से निपटने की आवश्यकता भी है क्योंकि किसी एक स्थान पर किये जा रहे प्रयास किसी भी स्तर पर सम्पूर्ण माहौल को बदलने में कारगर साबित नहीं होने वाले हैं .
बेशक भारत में कड़े कानून को लागू करने की बात की जा रही है पर संशोधन के बाद भी नाबालिग पर बाल अदालत में मुक़दमा चलाये जाने कि छूट तो मिल गयी है पर स्पष्ट रूप से यह भी कहा गया है कि किसी भी बाल अपराधी को उम्र कैद या मौत की सजा भी नहीं दी जा सकती है तो इस मामले में किस कानून के अंतर्गत बच्चों को इन अपराधों से दूर करने के लिए कठोर माना जाये ? देश के सामने इस तरह के ज्वलंत मुद्दे अभी भी बचे हुए हैं जिनके लिए समाज और सरकार के पास कोई उत्तर नहीं है और वह ऐसी बातें होने पर आसानी से अपनी ज़िम्मेदारी दूसरों पर डालने की तरफ बढ़ जाया करते हैं. अब देश की भावी पीढ़ी को बचाने के लिए सभी उत्तरदायी लोगों को मिलकर प्रयास करने होंगें तभी जाकर पूरा समाज सुरक्षित हो सकता है. इससे पूरी तरह से निपटने के लिए पूरे देश में जो माहौल बच्चों के लिए होना चाहिए उसका निर्माण करना भी वर्तमान पीढ़ी की ही ज़िम्मेदारी है और इससे बचने के किसी भी रास्ते को खोजना देश में अपनी सीमाओं और ज़िम्मेदारियों से भागना ही कहा जाना चाहिए. किसी भी परिस्थिति में सारी बातें केवल कानून और पुलिस पर ही डालकर किस तरह से समाज को एकजुट और सुरखित रखा जा सकता है आज भी यह किसी को समझ नहीं आता है.
इस मामले को यदि निर्भया मामले से आगे बढ़कर आज के वैश्विक परिप्रेक्ष्य में समझा जाये तो सोचने का नजरिया ही बदलना पड़ेगा क्योंकि हम यह कभी भी नहीं सोचना चाहते हैं कि आखिर वे कौन से कारण हैं जो हमारी युवा पीढ़ी को इन अपराधियों के चंगुल तक इतनी आसानी से भेज दिया करते हैं ? क्यों पढ़ने की उम्र में एक बच्चा अपने परिवार की परवरिश के बारे में चाह कर या बेमन से ही सही पर समाज के लिए पूरी तरह से खुल जाता है जहाँ पर अच्छे और बुरे हर तरह के व्यक्ति से उसका पाला पड़ता है और उनमें से ही कई बार कुछ बच्चे ऐसे आपराधिक प्रवृत्तियों वाले लोगों की संगति में भी पहुँच जाते हैं जिनसे उनका वास्ता ही नहीं होना चाहिए तथा वे अपने इन उस्तादों के साये में ही सही गलत को समझे बिना ही कुछ भी कर गुजरने की तरफ बढ़ जाते हैं ? क्या इनको सुरक्षित रखने के लिए हम एक समाज के रूप में पूरी तरह से फेल नहीं हो जाते हैं और अरबों रुपयों की कल्याणकारी योजनाएं चलाने वाली भारत सरकार तथा राज्य सरकार इनके परिवार के उचित भरण पोषण के लिए क्या कर पाती हैं ?
अब इस तरह के अपराधों पर कानून की सख्ती और अपराधियों की दरिंदगी के बारे में विचार करने के साथ ही हमें इस मुद्दे पर भी सोचना ही होगा कि आखिर क्यों हमारे बच्चे इस तरह से कच्ची उम्र में ही समाज कि हर अच्छाई बुराई के साथ जीने को अभिशप्त हो जाते हैं जहाँ उनके लिए अच्छा बहुत कम ही होता है और वे निरंतर ही किसी न किसी दुष्चक्र में उलझने की कगार पर ही रहा करते हैं. अच्छा हो कि सरकार देश में बनने वाले परिवार रजिस्टर को पूरी ईमानदारी के साथ सोशल ऑडिट के माध्यम से एक बार फिर से बनवाने का प्रयास करे जिससे समाज के निचले स्तर के लोगों के बारे में सही योजनाएं भी बनायीं जा सकें और इन परिवारों में किसी भी तरह की समस्या आने पर उनके बच्चों की आजीविका के लिए कुछ व्यवस्था भी की जा सके. आज जितना भी धन कल्याणकारी योजनाओं में खर्च होता है यदि उसको पूरी ईमानदारी के साथ लागू किया जा सके तो पूरे देश में आर्थिक कारणों से अपराध की चंगुल तक जाने अनजाने पहुँचने वाले बच्चों और किशोरों को पूरी तरह से सुरक्षित किया जा सकता है.

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