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जीएसटी और संसदीय परम्परा

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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पिछले दो सत्रों से जीएसटी बिल के लोकसभा की सहमति के बाद भी राज्यसभा में अटकने की पुनरावृत्ति रोकने के लिए जिस तरह से अपनी सरकार की प्राथमिकताओं के साथ पीएम मोदी ने सदन में सबसे बड़े दूसरे दल कांग्रेस से इस बिल पर बातचीत करने की पहल की वह निश्चित तौर पर मोदी सरकार की तरफ से बड़े बदलाव का संकेत ही करती है जिसमें उन्होंने देश की प्राथमिकताओं के चलते सदन में सामंजस्य बैठाने के लिए पूरे मामले की कमान अपने हाथों में ले ली है. भारतीय संसद और राजनीति का यही स्वरुप रहा है कि जब भी देश को आवश्यकता हुई तब तब संसद में राजनैतिक दीवारों को तोड़कर सभी दलों ने पूरे मनोयोग से सरकार के उस हर प्रयास का समर्थन किया है जिससे देश आगे बढ़ सके. मोदी सरकार के अधिकतर मंत्री और भाजपा नेता संभवतः अभी तक इस स्थिति को समझ नहीं पा रहे थे क्योंकि संसद के अंदर भी उनकी तरफ से जिस तरह से मुद्दों पर आधारित हमले कम और व्यक्तिगत हमलों पर अधिक ध्यान दिया जाता रहा है उससे भी सदन और सड़कों तक राजनैतिक विद्वेष अपने चरम पर दिखाई देता है जिसकी एक स्वस्थ लोकतंत्र में कोई आवश्यकता नहीं होती है.
आज जिन नीतियों को आमूल-चूल बदलने की चर्चा के रूप में भाजपा और मोदी सरकार अपने को परिवर्तन का पुरोधा बताने में लगे हुए हैं उसकी सभी को जानकारी भी है क्योंकि कांग्रेस ने जो विधेयक प्रस्तावित किया था उसके अंतर्गत सबसे मुख्य विवाद राज्यों को १% अतिरिक्त कर लेने की छूट वाली मोदी सरकार की नीति का ही आज सबसे बड़ा विरोध किया जा रहा है. कांग्रेस का यह मानना है कि इस मुद्दे पर १८% की संवैधानिक कैप होनी चाहिए और इससे अधिक किसी भी परिस्थिति में किसी को भी इस सीमा से आगे जाने की छूट नहीं होनी चाहिए पर भाजपा संभवतः आने वाले समय में केंद्र के संसाधनों के साथ राज्यों के लिए इस १% की छूट को लेकर अपने लिए बोझ को कम करना चाह रही है. अब इस मुद्दे पर ही कांग्रेस को विचार करना है साथ ही सरकार को भी यह सोचना है कि जिन अर्थशास्त्री पीएम मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यह बिल बनाया गया था तो उन्होंने कुछ सोचकर ही इस तरह की कैप की बात कि होगी जो कि संभवतः किसी भी परिस्थिति में मोदी और जेटली की समझ से बाहर ही है क्योंकि इस तरह की संवैधानिक छूट मिल जाने पर राज्य अपनी स्तर पर फिर जीएसटी की दर को प्रभावित करने की स्थिति में आ जायेंगें और देश भर में एक समान टैक्स फिर सपना ही रह जाने वाला है.
संसदीय परंपरा में चुनावों तक राजनैतिक विरोध समझ में आता है पर मोदी सरकार के आने के बाद जिस तरह से लोकसभा में संख्या बल के दम पर अपनी प्रभुता को दिखाने का क्रम मई २०१४ से शुरू हुआ था वह आज भी कम होता नहीं दिख रहा है जिसमें राजनैतिक प्रतिद्वंंदी होने के यह मतलब होता कि वे आपके कट्टर शत्रु हैं. खुद पीएम ने जिस तरह से मजबूरी में ही सही कल पहले बार सदन में अपने दोहरे चोले को उतारते हुए आज़ादी के बाद से सभी सरकारों के काम की तारीफें की और सदन में उसी तरह की बातें की जैसी अक्सर वे विदेशों में दौरों पर किया करते हैं तो उससे सदन के माहौल में अच्छा परिवर्तन भी दिखाई दिया है फिर भी अभी कुछ मुद्दों पर विवादों से दूर रहते हुए केवल संसदीय परम्पराओं को ही ध्यान में रखा जाना उचित रहने वाला है. अब इस मामले में मोदी द्वारा संसद में की गयी पहल अच्छे अवसर उत्पन्न करेगी ऐसा माना जाना चाहिए और साथ ही कांग्रेस को भी यह समझना होगा कि यदि सरकार की तरफ से देशहित में कोई प्रयास किया जा रहा है तो उसका भरपूर और न्यायोचित समर्थन भी किया जाये. भाजपा-कांग्रेस के शीर्ष स्तर के नेताओं के इस तरह से मिलने से जहाँ निचले स्तर तक विद्वेष कम हो सकता है और चुनावी राजनीति अपनी मजबूरी और कमियों के साथ संसद में गतिरोध के स्तर को कम करने की तरफ जाएगी ऐसी आशा की जानी चाहिए.

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