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भारत – व्यापार का एक और बुरा दौर

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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पिछले कुछ वर्षों से विभिन्न नीतिगत तथा राजनैतिक दलों की व्यक्तिगत लालसाओं के चलते जिस तरह से देश की आर्थिक गतिविधियों की दिशा को लेकर बहुत अधिक भ्रम बना रहा है आज संभवतः उसी के चलते पीएम मोदी को दुनिया के महत्वपूर्ण देशों में घूमकर यह दर्शाना पड़ रहा है कि भारत में कारोबारियों के लिए आज भी बहुत अच्छा माहौल है. भारत में देश के विकास और समाज के उत्थान से जुड़े हुए मुद्दों पर भी जिस तरह से राजनीति होती रहती है संभवतः देश की नकारात्मक छवि बन जाने के पीछे उसका भी बहुत बड़ा योगदान रहा करता है क्योंकि मोदी ने अपने गुजरात के सीएम के कार्यकाल में जिस तरह से नए आर्थिक सुधारों की पैरोकारी की थी वे आज भी उसके लिए प्रयत्नशील दिखाई दे रहे हैं पर उस समय की भाजपा ने मनमोहन सरकार को हर तरह से रोकने की जो गलतियां की थीं उसके चलते मोदी का काम बहुत बढ़ा हुआ लगता है क्योंकि जिन नीतियों को मनमोहन सरकार देश की परिस्थितियों के अनुसार धीरे धीरे बदलना चाहती थी आज मोदी सरकार उन्हें एक झटके में बदलने के लिए लालायित दिखाई देती है पर संघ, भाजपा और उसके मजदूर संगठनों के साथ अब कांग्रेस भी इन मुद्दों पर सरकार के साथ खड़े नहीं होना चाहती है.
संसद के शीतकालीन सत्र के पहले संसद की दो दिनों की विशेष बैठक में जिस तरह से पीएम मोदी ने अपनी लम्बी उपस्थिति दिखाई वह अच्छा संकेत है क्योंकि आज अन्य व्यस्तताओं के चलते पीएम के पास इतना समय ही नहीं होता है कि वे पूरा दिन सदन में गुजर सकें जिसका सीधा असर सदन की विधायी गतिविधियों पर भी दिखाई देता है. पीएम का यह परिवर्तन समाज को यह सन्देश देने की कोशिश भी हो सकता है कि भाजपा भी डॉ आंबेडकर का बहुत सम्मान करती है क्योंकि बिहार में जिस तरह से पिछड़ों के महागठबंधन ने भाजपा के सारे समीकरणों को ध्वस्त कर दिया है यह खुद पीएम की समझ में भी आ रहा है. केवल राजनैतिक लाभ लेने के लिए जिस तरह से बिहार में चुनाव को अगड़े पिछड़े से लगाकर हिन्दू मुस्लिम ध्रुवीकरण तक की कोशिशें की गयीं वह किसी से भी छिपा नहीं है उसके अपेक्षित परिणाम न आने से भाजपा में बेचैनी बढ़ चुकी है क्योंकि यदि इस तरह के प्रयोग के लिए बसपा ने यूपी में कोई समझदारी भरा ऐसा ही अप्रत्याशित कदम उठा लिया तो भाजपा के लिए वहां का वनवास और भी लम्बा हो सकता है. लोकसभा चुनावों से पूरी तरह से अलग होने के कारण विधान सभा चुनावों में प्रदर्शन करने का दबाव अब भाजपा पर ही अधिक है.
अंतर्राष्ट्रीय मोर्चों से आ रहे संकेतों से यही लग रहा है कि दुनिया में मंदी एक बार फिर से अपने प्रभाव को दिखाने वाली है बेशक कोई भी भारतीय नेता कुछ भी कहता रहे पर इस सत्य से किनारा नहीं किया जा सकता है कि देश पर भी मंदी का प्रभाव दिखाई दे रहा है. मैन्युफैक्चरिंग और कंस्ट्रक्शन दोनों क्षेत्रों में जिस तरह से नेगेटिव ग्रोथ ने फरवरी २०१४ के स्तर से नीचे को छू लिया है तो यह बेहद चिंता का विषय है केवल सेवा क्षेत्र में ही सुधार दिखाई दे रहा है पर उसके भरोसे अर्थव्यवस्था को संभाला तो नहीं जा सकता है. पिछले तीन फसलों के चक्र में विपरीत मौसम से घटते उत्पादन से अब मोदी सरकार को चिंतित होने की आवश्यकता भी है क्योंकि जब तक देश के गांवों में रहने वाली ७०% आबादी के पास आमदनी के संसाधन नहीं होंगें तब तक देश के उत्पादन के उपभोक्ता कहाँ से आयेंगें ? जिस चीन मॉडल को गुजरात में लागू कर मोदी ने कोशिशें शुरू की थीं आज वह खुद ही संकट में घिरा हुआ है तो इस परिस्थिति में क्या सुधारों को एकदम से लागू करना देशहित में रहेगा यह बताने और समझने वाला कोई भी नहीं है. प्रचंड बहुमत के साथ राज्यसभा की मजबूरी ने जिस तरह मोदी सरकार पर लगाम लगा रखी है वह एक तरह से ठीक ही है क्योंकि अंधानुकरण में लागू किये गए सुधारों से भारत का कोई भला नहीं होने वाला है.

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