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असहिष्णुता, आमिर और मुसलमान

***.......सीधी खरी बात.......***
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बिहार चुनाव निपटने के बाद एक बार लगने लगा था कि असहिष्णुता, बीफ अभिव्यक्ति की आज़ादी आदि ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें चुनाव के समय ही एक योजना के तहत विभिन्न राजनैतिक दल उठाते रहते हैं पर क्या वास्तव में देश के अंदर असहिष्णुता बढ़ रही है या फिर कहीं से यह क्रिया की सामान्य प्रतिक्रिया ही है जिसके अंतर्गत समाज के विभिन्न वर्गों और क्षेत्रों में काम करने वाले महत्वपूर्ण व्यक्तियों के लिए भी यह एक मुद्दा है ? आज देश के आम नागरिकों को ईमानदारी के साथ इन सभी मसलों पर सोचना ही होगा क्योंकि अभी तक कारण चाहे जो भी रहे हों पर भारतीय मुसलमानों ने खुले तौर पर कभी भी देश के अंदर या दुनिया के किसी भी हिस्से में चरमपंथी इस्लाम का समर्थन नहीं किया है और संभवतः पूरी दुनिया में भारत ही एकमात्र ऐसा देश होगा जहाँ लगभग एक हज़ार इस्लामिक धार्मिक संस्थाओं ने संयुक्त रूप से आईएस के खिलाफ फतवा जारी किया है और उसे संयुक्त राष्ट्र तथा दुनिया के मुख्य देशों के राष्ट्राध्यक्षों को भी भेजा गया है. यह भारतीय मुसलमान की उस मनोदशा को भी दिखाता है जो कहीं न कहीं से उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली घटनाओं के फलस्वरूप झेलनी पड़ती है.
हर समाज और देश में सहिष्णु तथा कट्टर लोग हुआ करते हैं पर आज जिस तरह से इस्लाम को असहिष्णुता का पर्याय माना जाने लगा है और भारत में इस्लाम के साथ ईसाईयों के खिलाफ भी विद्वेषपूर्ण बयानों और धमकियों में बढ़ोत्तरी हुई है उससे यही लगता है कि समाज में हर वर्ग अपने विरूद्ध कुछ भी सुनना नहीं चाहता है. आज यदि भारतीय मुसलमानों के खिलाफ किसी हद तक दुष्प्रचार चल रहा है तो इसके लिए खुद मुसलमानों को भी आत्ममंथन करने की आवश्यकता भी है क्योंकि देश के विभिन्न राजनैतिक दल अपनी आवश्यकतानुसार मुस्लिम वोट बैंक का इस्तेमाल किया करते हैं जो कि काफी हद तक सहिष्णु हिन्दू समाज के लोगों की सोच पर दुष्प्रचार के माध्यम से यह साबित कर देता है कि भारतीय मुस्लिम इस तरह के काम किया करते हैं. सवाल यह भी है कि देश के किसी समूह, वर्ग या धर्म को यदि अपनी राष्ट्रभक्ति साबित करने के लिए कहा जाता है तो इसका समर्थन करने वाले कहाँ से आ रहे हैं ? भारत के मुसलमानों को हर उस बात और व्यक्ति से दूरी बनाने की कोशिश करनी ही होगी जो कहीं न कहीं से मुस्लिम ध्रुवीकरण से लाभान्वित होना चाह रहा है.
आज़ादी के बाद से ही पाकिस्तान के शासकों के नाम पर जिस तरह से भारतीय बच्चों के नाम रखे जाने का एक चलन सा रहा है क्या वह भी उनके खिलाफ एक हथियार के रूप में इन संगठनों द्वारा इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है ? यह सही है जब भारतीय मुसलमान भी किसी भी तरह के नामों को रखने के लिए स्वतंत्र हैं पर क्या उनके पास नामों की इतनी कमी है कि उन्हें वही नाम अच्छे लगते हैं जो पाकिस्तान के शासकों के हुआ करते हैं ? यह सब कुछ ऐसा भी है कि जाने-अनजाने में इस तरह से जो काम भारतीय मुस्लिम समाज में हो रहा है वह भी किसी स्तर पर उनके खिलाफ दुष्प्रचार को मज़बूत कर सहिष्णु हिन्दुओं में से कुछ लोगों को उनके खिलाफ करने में सफल हो जाता है. आज भारतीय मुसलमानों के लिए अपने लिए सब कुछ पाना आसान है पर किसी भी स्तर पर उन्हें अपने अंदर इस तरह के किसी भी काम से परहेज़ ही करना चाहिए भले ही थोड़े लोगों द्वारा कुछ किया जा रहा हो. हिंसा लम्बे समय तक कहीं भी नहीं टिक सकती है आज यदि भारतीय मुसलमान दुनिया भर में सबसे शांत है तो वह सिर्फ इसलिए भी है कि उसे यहाँ की राजनीति में पूरा दखल देने का अधिकार प्राप्त है और वह पंचायत स्तर से संसद तक अपने प्रतिनिधि चुनने और भेजने में सफल रहते हैं. कुछ दलों के द्वारा इस तरह के मुद्दों पर आक्रामक होने से सिर्फ मुस्लिम समाज का ही नुकसान होना है इसलिए उन्हें किसी भी नेता या राजनैतिक दल से किसी भी तरह की सौदेबाज़ी दे दूर ही रहना चाहिए क्योंकि आज देश में एक ऐसा वर्ग भी सक्रिय है जो उसे भारत विरोधी साबित करने में लगा हुआ है.

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