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नेहरू, भाजपा और आज का भारत

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की १२५ वीं जयंती पर एक कार्यक्रम में बोलते हुए जिस तरह से केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने खुले तौर पर यह स्वीकार किया कि नेहरू से वैचारिक असहमति तो हो सकती है पर उनके इरादों पर संदेह नहीं किया जा सकता है और उनकी विश्वसनीयता असंदिग्ध है. डेढ़ साल सरकार चलाने के बाद अब नेहरू की प्रासंगिकता जिस तरह से भाजपा को याद आने लगी है वह अपने आप में एक बड़ा तथ्य स्वीकार करने जैसा ही है क्योंकि अभी तक संघ की शिक्षा में पले बढे हुए हर नेता और नागरिक को यही सिखाया गया है कि देश के विभाजन के लिए गांधी से अधिक नेहरू ज़िममेदार थे और विभिन्न अवसरों पर संघ की विचारधारा भी इस बात की पुष्टि करती हुई दिखाई देती है. यह अच्छा ही है कि राजनाथ सिंह ने अपने होमवर्क सही तरह से किया और नेहरू के योगदान के रूप में देश के विकास में उनके योगदान की चर्चा करने में कोई कोताही भी नहीं की. नेहरू की सूझबूझ ने देश को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जो पहचान दिलाई थी आज राजनाथ उसे स्वीकार करने में हिचक नहीं रहे हैं तो यह नेहरू के कद को खुद ही दिखा देता है जिनके हर कदम ने देश को मज़बूती ही प्रदान करने का काम किया था.
पीएम मोदी भले ही अपने स्तर से अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर नेहरू को अनमने मन से याद करने को मजबूर हों पर उनकी तरफ से आज भी सामान्य शिष्टाचार नहीं दिखाया जाता है क्योंकि बिहार में दलित राजनीति से पटखनी खाने के बाद उन्होंने जिस तरह से महाराष्ट्र के सीएम के साथ लंदन में बाबा साहब आंबेडकर के उस घर में जाना तो पसंद किया जहाँ वे अपने लंदन प्रवास के दौरान रहा करते थे पर उन्होंने नेहरू की १२५ वीं जयंती पर उनके लिए एक ट्वीट करना भी उचित नहीं समझा जबकि यदि वे चाहते तो उनके आधिकारिक ट्विटर से एक ट्वीट तो आसानी के साथ किया ही जा सकता था. उनका यह रवैया तब था जबकि अपने इसी लंदन प्रवास में ही वे ब्रिटिश सांसदों के समक्ष नेहरू से मनमोहन सिंह तक के प्रधानमंत्रियों के भरपूर योगदान का ज़िक्र कर भी चुके थे. भले ही उनके मन में नेहरू के लिए कोई सम्मान न हो पर कई बार मजबूरियां भी उन्हें नेहरू के भारत के बहुत बड़े और सर्वकालिक नेता होने का एहसास कराया करती हैं. अफ़्रीकी देशों एक साथ हाल ही में हुए शिखर सम्मलेन में कई नेताओं ने नेहरू इंदिरा का ज़िक्र कर मोदी के लिए असहज स्थिति उत्पन्न कर दी थी संभवतः वे अपनी उस गलती से अभी भी कोई सीख नहीं लेना चाहते हैं.
आज इस बात का कोई महत्व नहीं है कि भाजपा नेहरू के प्रति क्या रुख रखती है क्योंकि सदैव से ही हर बात को अपने नज़रिये से परिभाषित करने के कारण उसका रुख हर मुद्दे पर अलग ही रहा करता है. नेहरू की राजनैतिक सूझ-बूझ जितनी थी मोदी अभी उसके बराबर कहीं भी नहीं टिकते हैं क्योंकि सभी जानते हैं कि नेहरू ने अपने धुर विरोधी रहे श्यामा प्रसाद मुखर्जी और डॉ आंबेडकर को भी अपने मंत्रिमंडल में जगह दी थी जबकि मोदी देश के पूर्व प्रधानमंत्रियों को केवल कांग्रेसी नेता से अधिक कुछ भी मानने को तैयार नहीं दीखते हैं. राजनाथ सिंह का नेहरू के प्रति नरम बयान इस बात की तैयारी भी हो सकता है कि निकट भविष्य में यदि भाजपा में मोदी के मुकाबले किसी अन्य को पीएम बनाने की बात उठे तो राजनाथ सिंह का कद ऐसा हो कि विपक्षी भी उस पर उतनी आसानी से विरोध न कर पाएं जैसा कि वे मोदी के मामले में करते हैं. देश के अंदर भाजपा और संघ की पाठशाला में पढ़े हुए किसी भी नेता के रूप में राजनाथ ने वह समझदारी संभवतः अपने आने वाले भविष्य के सन्दर्भ में उठाई है जहाँ उन्होंने संघ की नेहरू से असहमति का ध्यान तो रखा पर उनके योगदान को भी खुले मन से स्वीकार करने का प्रदर्शन भी किया. पीएम के रूप में मोदी को अब संघ और भाजपा के उस खोखला विरोध करने की मानसिकता से बाहर आने का समय भी है क्योंकि उनकी सभी बातें उनकी इस तरह की हरकतों से कहीं न कहीं पानी फेरने का काम ही किया करती हैं.

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