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मोदी का ब्रिटेन दौरा और सहिष्णुता

***.......सीधी खरी बात.......***
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असहिष्णुता के मुद्दे पर देश के बुद्धिजीवियों की तरफ से लगातार आलोचना झेल रहे पीएम का ब्रिेटेन में भी विभिन्न सकारात्मक क़दमों के साथ भारत में सहिष्णुता के कम होने का मुद्दा उठने से यह साफ़ हो गया है कि आने वाले समय में खुद पीएम को भी देश के अंदर भी इस मुद्दे पर खुलकर बोलना ही होगा. आज जब हमारे देश के मुखिया के तौर पर पीएम डिजिटल इंडिया की बातें करते हैं तो उनको यह भी समझना ही होगा कि इसी डिजिटल क्रांति के चलते ही आज सम्पूर्ण विश्व की नज़र दुनिया के हर हिस्से पर रहा करती है. यह भी सही है कि पीएम के रूप में उनको देश के अंदर उन तत्वों से निपटने की हर संभव कोशिश करनी है जो भारत के किसी भी स्तर पर विरोध में साजिशन शामिल रहा करते हैं पर साथ ही लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत यह भी होती है कि वहां हर तरह के विरोध को करने देने की एक छूट भी हुआ करती है. दुनिया भर से अवैध तरीकों से सहायता लाने वाले स्वयंसेवी संगठनों पर रोक लगाया जाना अपने आप में बहुत बड़ा काम है पर उसकी पृष्ठभूमि में एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसी संस्था पर रोक लगाया जाना दुनिया में देश को असहिष्णु साबित करने की तरफ भी ले जाता है.
ब्रिटिश प्रेस ने जिस तरह से असहिष्णुता के मुद्दे को लेकर पीएम की चुप्पी को भी कटघरे में खड़ा किया है उससे कहीं न कहीं उनकी उस साख पर भी प्रभाव पड़ता है जो २०१४ के स्पष्ट बहुमत के बाद दुनिया भर में बनी थी. वेम्ब्ले स्टेडियम में दुनिया के सामने अपनी और भारत की स्थापित छवि के साथ मेल खाते हुए जिस तरह से पीएम ने यह कहा कि भारत विविधताओं का देश है तथा यही हमारी शान और शक्ति है तो उसमें कुछ भी नया नहीं है अभी तक देश से जितने भी पीएम विदेश दौरों पर जाते हैं तो वे सभी लगभग इसी तरह की बातें किया करते थे पर जब देश में इस मुद्दे को लेकर बुद्धिजीवियों की तरफ से सरकार का लगतार विरोध किया जा रहा हो और उस पर राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति, प्रधान न्यायाधीश और रिज़र्व बैंक के गवर्नर की तरफ से बयान आने के बाद भी पीएम कुछ न कहना चाह रहे हों तो विदेशी धरती पर उनको इस तरह के सवालों का सामना करने से नहीं बचाया जा सकता है. आमतौर पर मोदी पत्रकारों से केवल उन्ही सवालों की आशा करते हैं जो उनकी टीम की तरफ से दिए जाते हैं पर ब्रिटेन में उनकी आलोचना होने के साथ पत्रकरों ने चुभते हुए सवाल करने में कोई कसर भी नहीं छोड़ी हालाँकि उन्होंने कुछ सवालों का जवाब भी दिया पर देश के पीएम को इस तरह से असहज होते हुए देखना कहीं से भी भारतीयों को अच्छा नहीं लगता है.
अब यह देखने की बात होगी कि इस मुद्दे पर पीएम ने ब्रिटेन में जो कुछ कहा वह भी केवल जुमला मात्र ही था या स्वदेश आने पर पीएम इस मुद्दे को गंभीरता के साथ डील करना भी चाहते हैं. देश के इतिहास से जिस तरह से एक तरफा छेड़छाड़ भी शुरू की गयी हैं उससे देश में असहिष्णुता की मात्रा बढ़ने की पूरी संभावनाएं भी हैं क्योंकि जब तक पीएम की तरफ से एक स्पष्ट सन्देश समाज और इन ताकतों को नहीं मिल जाता है तब तक छुटपुट घटनाएँ तो होती ही रहेंगीं. पीएम के सख्त रवैये से जहाँ राज्य सरकारों को इन तत्वों पर सख्ती करने के संकेत मिल सकते हैं वहीं राज्यों में भाजपा और अन्य कट्टर हिंदूवादी संगठन भी इससे दबाव में आ सकते हैं. कहीं मोदी के बढ़ते राजनैतिक कद से परेशान होते हुए संभवतः संघ द्वारा भी कुछ ऐसे प्रयास किये जा रहे हैं जिससे मोदी की राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय छवि को कमज़ोर किया जा सके ? अटल जैसे पीएम भी संघ के सामने नतमस्तक रहा करते थे पर मोदी ने खुद को सबसे बड़ा दिखाने की जो कोशिश शुरू की है आज उससे निपटने का संघ संभवतः कोई मार्ग नहीं मिल रहा है इसलिए उसे कमज़ोर अटल की तरह ही कमज़ोर मोदी की चाह भी है जो कि वर्तमान परिस्थिति पूरी होती नहीं दिख रही हैं और उनकी इस लड़ाई में अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत की किरकिरी होनी शुरू हो चुकी है.

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