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संयुक्त राष्ट्र सुधार और भारत

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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अपने ७० वर्ष के लम्बे कार्यकाल में जिस तरह से संयुक्त राष्ट्र ने इस बार अपने स्वरुप में बदलाव और आज की परिस्थिति के अनुरूप नए देशों की स्थायी या अस्थायी सदस्यता के लिए एक पत्र को विचार करने के लिए स्वीकार कर लिया है उससे आने वाले समय में भारत की संभावनाओं को बल मिला है. संयुक्त राष्ट्र का गठन पूरे विश्व में शांति बनाये रखने और मानवीय समस्याओं से जुड़े हुए अन्य मुद्दों पर भी लगातार काम करने से सम्बंधित ही रहा था पर कालांतर में अमेरिका-रूस के शीत युद्ध में जिस तरह से समूचे विश्व को दो हिस्सों में बाँट देने की रणनीति पर काम किया जाने लगा उससे यूएन भी निष्पक्ष नहीं रह गया था क्योंकि इन बड़े देशों की तरफ से ही यूएन को चलाने के लिए धन मिलता है तो इस परिस्थिति में कोई भी सुधार पूरी तरह से इन देशों के खिलाफ ही जा सकता है. आज बदली हुई वैश्विक परिस्थिति में इन पांच सदस्यों की तरफ से भी कुछ ख़ास नहीं किया जा रहा है बल्कि एक दूसरे से जुड़े मुद्दों पर शुरू से से आज तक भी अमेरिका रूस वीटो का दुरूपयोग खुलेआम कर अपने या समर्थक राष्ट्रों को बचाने की जुगत ही किया करते हैं.
अपनी आज़ादी के समय से भले ही रूस भारत का सबसे बड़ा सहयोगी रहा हो पर विश्व के अन्य देशों के साथ हमारे संबंधों पर कभी कोई विपरीत असर नहीं पड़ा क्योंकि भारत ने ही गट निरपेक्ष आंदोलन की शुरुवात करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी. यह भारत की सफलता ही थी कि इस समूह के पास सीमित क्षमता होने के बाद भी संपन्न देशों को चुनौती देने के लिए मजबूत सम्बल हुआ करता था पर रूस में सुधारों के बाद दुनिया के दो ध्रुवों के बीच का संघर्ष समाप्त सा ही हो गया था जिसके बाद आज भी रूस अपनी पुरानी गति को नहीं पकड़ पाया है. पांचों स्थायी सदस्य सिर्फ इसलिए ही नए स्थायी सदस्यों के खिलाफ हैं क्योंकि आज अधिकांश देशों के पास अपने महत्वपूर्ण कामों को करवाने या रोकने के लिए इन देशों से ही कहना पड़ता है पर आने वाले समय में उनकी इस मज़बूती पर रोक लग जाएगी क्योंकि भारत, ब्राज़ील जैसे देश यदि इस सूची में जगह बना पाने में सफल हो जाते हैं तो यह क्षेत्रीय संतुलन इन बड़े देशों के हाथों से पूरी तरह निकल ही जाने वाला है और आज इनमें से कोई भी देश इस स्थिति के लिए तैयार नहीं दिखाई देता है.
आज के विश्व में यूएन के पास बहुत सारे अधिकार तो हैं पर वह उन्हें केवल प्रस्ताव के रूप में ही आगे बढ़ा सकता है क्या आने वाले दिनों में पांचों क्षेत्रीय शक्तियों और विश्व के बड़े आर्थिक समूहों को भी पूरी दुनिया को सँभालने के लिए निश्चित तौर पर तटस्थ रूप से काम करने के लिए तैयार नहीं होना चाहिए ? यूएन भले ही कितना कारगर क्यों न हो उसके प्रतिबन्ध केवल उन्हीं देशों पर कारगर होते हैं जहाँ अमेरिका चाहता है वर्ना उसके पता नहीं कितने महत्वपूर्ण प्रस्ताव धरातल पर सिर्फ इसलिए ही नहीं उतर पाये भले ही अमानवीय रहे हों पर वे अमेरिकी हितों का पोषण करने में सफल नहीं हो पा रहे थे. यूएन को अब सही अर्थों में कारगर और तटस्थ बनाये रखने के लिए गंभीर प्रयास करने ही होंगें और संभवतः आम सभा में पारित इस नए प्रस्ताव पर कुछ गंभीर चिंतन किया जा सकेगा जिससे पूरी दुनिया के परिदृश्य को भी सुधारा जा सके. भारत आज स्वाभाविक रूप से इसके स्थायी सदस्य होने के लिए पात्र है क्योंकि आज संसाधन, विकास, आर्थिक गतिविधि और लम्बे समय तक दुनिया की आर्थिक गतिविधियों में तेज़ी बनाये रखने के लिए भारत की अनदेखी किसी भी स्तर पर नहीं की जा सकती है.

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