Menu
blogid : 488 postid : 961860

मेमन – कानून सजा और अमल

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
  • 2165 Posts
  • 790 Comments

१९९३ मुंबई धमाकों के सह अभियुक्त बनाये गए याकूब मेमन की फांसी को लेकर जिस तरह से देश में माहौल बन रहा है उससे निपटने के लिए क्या देश के पास कोई मज़बूत विकल्प हैं या फिर इसी तरह से देश की सुरक्षा से जुड़े हुए महत्वपूर्ण मामलों में भी राजनैतिक रोटियां सेंकने के काम करने के लिए अब राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्र के लोगों को इस्तेमाल करने की एक गलत परंपरा की तरफ हम बढ़ने ही वाले हैं. कानून का यही कहना है कि भले ही कुछ दोषी छूट जाएँ पर किसी भी निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए तो क्या याकूब मेमन या अन्य आतंकी गतिविधियों में शामिल लोगों की धर्म के आधार पर पैरवी या विरोध करने को सही कहा जा सकता है ? मेमन का मामला इस लिए भी अधिक संवेदनशील हो जाता है क्योंकि आज देश के बहुत से हिस्सों में न्याय व्यवस्था से जुड़े हुए लोग भी उनकी सजा में अपनायी गयी प्रक्रिया में तकनीकी खामियों की बात करने लगे हैं जिसमें ऐसा नहीं है कि केवल मुस्लिम नेताओं या बुद्धिजीवियों की राय ही शामिल है क्योंकि बहुत सारे अन्य लोग भी इसी तरह के विचार रखते हैं. पुनरीक्षण याचिका पर दोनों जजों में मतभेद होने के कारण अब मामला सुप्रीम कोर्ट की बड़ी बेंच के सामने जा चूका है तो इस पर सभी को सामाजिक दबाव और राजनीति करने से बचना भी चाहिए.
देश में आतंक और सामाजिक अन्याय के खिलाफ मज़बूत व्यवस्था होनी ही चाहिए क्योंकि आज अगर यह स्थिति बन रही है तो इसका दोष केवल व्यवस्था और राजनेताओं पर ही नहीं छोड़ा जा सकता है. देश में नेताओं की सदैव से ही यही नीति रही है कि आवश्यकता पड़ने पर वे किसी भी तरफ झुककर अपने राजनैतिक हितों की पूर्ति करने से पीछे नहीं हटते हैं. आखिर क्या कारण हैं कि जिन लोगों को आतंकी गतिविधियों में शामिल बताकर जेलों में डाला जाता है उनके खिलाफ हमारी एजेंसियां मज़बूत सबूत नहीं ला पाती हैं जिससे हमारी अभियोजन की कमज़ोर प्रक्रिया पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है. क्या सरकार के पास जारी करने लायक ऐसे कोई आंकड़े हैं जिनमें यह बात सामने आ सके की जिन लोगों को किसी संदिग्ध आतंकी कारणों से पकड़ा गया था क्या उनके खिलाफ राज्यों की पुलिस और अभियोजन पक्ष ने मज़बूती से पैरवी करने के बारे में कभी सोचा भी था ? फांसी की तारिख तय हो जाने के बाद इस तरह की बातें केवल समाज को बाँटने के काम ही किया करती हैं क्योंकि समाज में हर समय ऐसे तत्व भी मौजूद ही रहा करते हैं जो इस तरह की घटनाओं में भी अपने राजनीतिक स्वार्थों को पूरा करने की तरफ बढ़ना शुरु कर ही देते हैं.
सुप्रीम कोर्ट की बड़ी पीठ में अब जो भी निर्णय सामने आये वह एक बात है पर क्या अब इस मामले के बहाने हम अपने देश की इस सबसे बड़ी कमी को दूर करने के बारे में कड़े कदम उठाने की तरफ बढ़ना भी चाहते हैं या इस विवाद के समाप्त होने के बाद फिर से हमारी ज़िंदगी फिर से उसी पुराने ढर्रे पर लौटने वाली है ? आज याकूब मेमन दो पक्षों के बीच एक मोहरे से अधिक कुछ भी नहीं दिख रहा है और हमारे कानून में कुछ ऐसा किया जाना चाहिए जिससे यह पता चल सके कि अब देश इस तरह से किसी भी मामले को निपटाने की मानसिकता से बाहर आ चुका है. कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए पुलिस और कोर्ट की आवश्यकता सदैव ही रहने वाली है पर अब हमें इस व्यवस्था की गति को सुधारने और किसी भी हिरासत में लिए गए व्यक्ति के खिलाफ सबूत न मिल पाने की दशा में अपनी गलती सुधारते हुए उसे सम्मान सहित रिहा करने के बारे में भी सोचना चाहिए. आरोप तो किसी पर भी लग सकते हैं पर उनको साबित करने की भी कोई समय सीमा तो देश में होनी ही चाहिए जिससे समय रहते उसको निर्दोष साबित होने पर अपनी ज़िंदगी को सुधारने का अवसर भी मिल सके. इस तरह के मामलों को त्वरित कोर्ट्स में भेजने की मज़बूत व्यवस्था होनी चाहिए और पुलिस को भी वहां पर तेज़ी के साथ काम करने की हिदायत भी होनी चाहिए जिससे आने वाले समय में इस तरह की घटिया राजनीति फिर से न दिखाई दे.

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh