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संसद का मानसून सत्र

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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आज से शुरू हो रहे संसद के मानसून सत्र में जिस तरह से पूरी अराजकता दिखाई देने की संभावनाएं बनती जा रही हैं उससे यही लगता है कि इस बार भी महत्वपूर्ण संसदीय कार्यों को कर पाने में सरकार को कड़ी मेहनत करनी पड़ सकती है. अभी तक जिस तरह से जीएसटी बिल पर कमोबेश सहमति बनती दिखाई दे रही है उससे यही लगता है कि यह महत्वपूर्ण विधेयक इस बार पारित हो सकता है पर लैंड बिल पर अभी भी गतिरोध बने रहने की संभावनाएं है अभी तक लैंड बिल के पास न होने के चलते संभवतः सरकार चौथी बार इस विधेयक को सदन में ला सकती है. लैंड बिल के ठन्डे बस्ते में जाने के संकेत इस बात से भी मिलते हैं कि लोकसभाध्यक्ष सुमित्रा महाजन का भी बयान आया है कि संयुक्त संसदीय समिति का कार्यकाल अगस्त तक बढ़ा दिया गया है जिससे यही लगे कि अभी भी विमर्श की स्थिति बनी हुई है. सरकार के नीति आयोग में इस मुद्दे पर सहमति बनाने के प्रयास के विफल होने के बाद अब इसे राज्यों के भरोसे ही छोड़े जाने की संभावनाएं दिखाई देने लगी हैं जिससे एक केंद्रीय मज़बूत कानून की संभावनाएं और भी क्षीण हो सकती हैं.
एक तरफ जहाँ राज्यों के क्षेत्रीय दल केंद्र सरकार की राज्य सभा में कमज़ोर स्थिति और अपनी अखिल भारतीय उपस्थिति न होने के चलते केवल अपने राज्यों से जुड़े हुए मुद्दों पर ही केंद्र से सौदेबाज़ी करना चाहते हैं वहीं अपनी खोयी हुई ज़मीन को तलाश रही कांग्रेस लगभग हर राज्य से जुड़े मुद्दों को लेकर सामने आने वाली है जिसमें व्यापम घोटाला केंद्र का सबसे बड़ा सर दर्द साबित हो सकता है क्योंकि इसमें अभी तक दोषियों को पूरी तरह से खोजा भी नहीं जा सका है पर अन्य राज्यों के छात्रों को हिरासत में लिए जाने और उन मसलों में कुछ खास न मिलने से विपक्षी दल भी सरकार को घेरने का काम कर सकते हैं. ललित मोदी इस मामले में दूसरा बड़ा गतिरोध साबित हो सकते हैं क्योंकि जब तक उस पर सदन में खुद सुषमा स्वराज का बयान नहीं आता तब तक विपक्ष इस मुद्दे को हवा देने से नहीं चूकने वाला है और सरकार की कोशिश यही रहने वाली है कि विदेश मंत्री अपनी स्थिति को स्पष्ट करते हुए अपना बयान सदन में जल्दी से जल्दी दे सकें जिससे सदन को चलाने में मदद मिल सके. दिल्ली पुलिस और केजरीवाल सरकार के विवाद का वैसे तो कोई असर सदन पर नहीं पड़ेगा पर यह समय समय पर सरकार के लिए सदन के बाहर चिंता का विषय बना रह सकता है.
पिछले कुछ वर्षों से सदन में किसी भी आरोप के सामने आने पर जिस तरह से सरकार और विपक्ष में अनावश्यक तनातनी देखने को मिलती है अब उसकी जगह मुद्दों पर देश हित में आम सहमति की तरफ बढ़ने के प्रयास किये जाने चाहिए जिससे विकास के मोर्चे पर देश में लगातार विमर्श की प्रक्रिया चलती रहे. हमारा लोकतंत्र दुर्भाग्य से अभी उतना परिपक्व नहीं हुआ है जहाँ असहमति को मुद्दों पर छोड़कर देश हित में व्यापक चर्चा शुरू की जा सके. आज भी छोटे छोटे मुद्दों पर संसद से लगाकर राज्यों की विधानसभाओं के सदन बाधित होते रहते हैं जिनसे निपटने के लिए सरकार के पास कोई विकल्प भी नहीं हैं क्या आज सरकार के साथ विपक्ष को भी यह सोचने की आवश्यकता नहीं है कि देश के लिए आवश्यक नीतिगत परिवर्तन करने के लिए एक सतत प्रक्रिया की आवश्यकता है ? क्या सदन का सत्र चलते रहते समय ही इन मुद्दों पर बातचीत होनी चाहिए जैसा कि अभी तक किया जाता है या फिर इन मुद्दों पर सरकार को लोकसभा और राज्य सभा टीवी पर लगातार सजीव चर्चा करते रहने पर सहमत होना चाहिए जिससे विभिन्न मुद्दों पर क्या चल रहा है यह सम्बंधित पक्ष भी जान सकें और अपने बहुमूल्य सुझाव भी समितियों या सरकार तक भेज सकें.

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