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आईपीएस शिवदीप वामन लांडे

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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बिहार कैडर और महाराष्ट्र के मूल निवासी आईपीएस अधिकारी शिवदीप लांडे के बच्चियों को बचाने के लिए अलग तरह से प्रयास करते हुए देखना बहुत ही सुखद लगता है क्योंकि आज समाज में बड़े स्तर के अधिकारियों और पुलिस की छवि ही कुछ इस तरह की बन चुकी है जिसमें आम लोग उन पर कम ही भरोसा किया करते हैं. महिलाओं और लड़कियों के साथ ही बच्चियों को लगातार बचाने की कोशिशें करते रहने के कारण आज शिवदीप बिहार पुलिस का एक बेहतर मानवीय चेहरा बनकर भी उभरे हैं जिससे पूरे देश की पुलिस को सबक सीखने की आवश्यकता भी है. आज देश के किसी भी राज्य के थाने में महिलाएं जाने से डरा ही करती हैं संभवतः उसके लिए समाज में पुलिस द्वारा अपनी बनायीं गयी छवि ही अधिक ज़िम्मेदार है और दुखद बात यह भी है कि पुलिस में भी बहुत अच्छे लोगों के होने के बाद भी आज तक आम लोगों का भरोसा उस पर कहीं से भी बढ़ता दिखाई भी नहीं देता है जो बेहतर प्रशासन के लिए पुलिस के लिए खुद ही बड़ा सरदर्द साबित होता रहता है क्योंकि आम लोग पुलिस के साथ समाज की कोई भी बात साझा नहीं करना चाहते हैं.
बिहार में पिछड़ेपन के कारण आज भी नवजात बचिचियों को लावारिस हालत में कहीं भी छोड़ देने की घटनाएँ आमतौर पर हुआ ही करती हैं तो इस सम्बन्ध में शिवदीप ने अपने स्तर से एक काम करना शुरू किया जिसमें ऐसी लावारिस हालत में मिली किसी भी नवजात बच्ची को प्राथमिक चिकित्सा और उचित माहौल देने का प्रयास करना शुरू किया गया जिसके सकारात्मक परिणाम भी सामने आने लगे हैं तथा रोहतास जिले में लोग उनके इस काम की तारीफ भी करने लगे हैं. इससे पहले उन्होंने स्कूल जानी वाली बच्चियों के सामने आने वाली समस्या पर भी अपनी पहले की पोस्टिंग्स में ध्यान दिया था जिससे असामाजिक तत्वों की हरकतों पर लगाम लगाने में भी पुलिस को सफलता मिली थी. आज जिस तरह से के अधिकारी के थोड़ा संवेदनशील होने से ही एक जिले और काफी हद तक बिहार के अन्य भागों में भी इस तरह की सोच विकसित होनी शुरू हुई है तो इसके लिए शिवदीप का योगदान कम नहीं कहा जा सकता है क्योंकि बिहार जैसे मीडिया में अधिक बदनाम राज्य में ही ज़मीनी स्तर पर सुधार की बहुत आवश्यकता भी है जिसे अविलम्ब शुरू किया जाना चाहिए.
ऐसा नही है कि देश के अन्य हिस्से आज भी महिलाओं और बच्चियों के लिए पूरी तरह से सुरक्षित ही हैं पर इस तरह की शुरुवात अपने आप में बहुत सही कही जा सकती है. यदि सरकारें अपने स्तर से प्रयास कर पुलिस और स्थानीय प्रशासन को इस बात के लिए निर्देशित करें तो लावारिस हालत में मिलने वाली बच्चियों को प्राथमिक उपचार के बाद सही हाथों में सौंपा भी जा सकता है. किसी भी अधिकारी के व्यक्तिगत प्रयासों से मिलने वाली सफलता और सामाजिक लाभ को यदि संस्थागत रूप से लागू करने की तरफ ध्यान दिया जाने लगे तो उस अधिकारी के स्थान विशेष से जाने के बाद भी स्थितियां वैसी ही संवेदनशील रह सकती है वर्ना पुलिस को भी अपने पुराने चरित्र में लौटने में समय कहाँ लगता है. ज़िम्मेदारियों के बोझ में उन पर यदि सामाजिकता का थोड़ा सा भार भी डाला जाये तो शायद इससे ही हमारी पुलिस फ़ोर्स में कुछ संवेदनशीलता का स्थायी समावेश भी हो सके. साथ ही उन अभिभावकों को भी कोई सीख दी जा सके जो किसी भी परिस्थिति में नवजात बच्चियों के साथ ऐसा व्यवहार किया करते हैं. सामाजिक सुधार पूरे समाज में बदलाव के साथ ही किया जा सकता है उसके लिए किसी भी स्तर पर अलग अलग मानक नहीं बनाये जा सकते हैं.

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