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मोदी के नेतृत्व में भारत का आर्थिक परिदृश्य

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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अब जब देश की सत्ता संभाले हुए मोदी सरकार को लगभग ११ महीने होने वाले हैं और अगले महीने वह पूरी तैयारी के साथ अपनी पहली वर्षगांठ मनाने की तैयारियों में भी लग चुकी है तो उद्योग जगत के कुछ मशहूर और महत्वपूर्ण नामों द्वारा सरकार के बड़े परिवर्तनों में असफल रहने के कारण आलोचना करने से आर्थिक परिदृश्य की वास्तविकता का ही पता चलता है. हाल ही में मेरिको समूह के हर्ष मारीवाला, एचडीएफसी के दीपक पारेख और सीआईआई के नए बने अध्यक्ष सुमित मजूमदार ने इस बात पर निराशा दिखाई थी कि यदि सरकार कुछ काम कर रही है तो उसका असर ज़मीन पर दिखाई भी देना चाहिए जबकि उनके अनुसार देश की आर्थिक स्थिति पिछले वर्ष से बहुत अलग परिदृश्य नहीं दिखाती है. ऐसे में अब सरकार पर सही दिखा में काम करने और केवल बयान ही न देने को लेकर दबाव बनना स्वाभाविक ही है क्योंकि चुनावों में स्वयं मोदी द्वारा केवल काम करने वाली सरकार को लेकर ही तत्कालीन संप्रग सरकार पर लगातार हमले किए जाते थे पर आज भी देश के उद्योग जगत को उस स्थिति में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं दिखाई दे रहा है.
इस सारे परिदृश्य के बीच में देश के सबसे प्रतिष्ठित उद्योगपति और टाटा समूह के मानद चेयरमैन रतन टाटा एक तरह से सरकार के बचाव में आगे आ गए हैं क्योंकि उनको यह लगता है कि परिवर्तन आने में समय लगता है और इसी बात को लेकर वे उद्योगपतियों से प्रतीक्षा करने के लिए कहते हुए दिखाई भी देते हैं. रतन टाटा के नाम और इनकी राय पर कोई विवाद कभी भी नहीं रहा करता है और उनका सोचना काफी हद तक सही भी है पर क्या खुद रतन टाटा इस बात से अनजान हैं कि पिछले वर्ष चुनावों एक समय मोदी ने जिस तरह से आगे बढ़कर बीस सालों में पूरे करने वाले वायदे देश से तत्काल ही पूरे करने के वायदे शुरू कर दिए थे आज जनता और उद्योग जगत उसी की आशा लगाये बैठे हैं और उसमें सभी को निराशा ही हाथ लग रही है. कोई भी परिवर्तन एक दम से नहीं किये जा सकते हैं और यदि तेज़ी से निर्णय लेकर काम किया भी जाये तो भी उनके वांक्षित परिणाम आने में समय ही लगा करता है जो कि किसी भी देश के लिए महत्वपूर्ण हुआ करता है. गुजरात में रतन टाटा ने मोदी के साथ उस परिस्थिति में काम किया था जब उनके लिए खुद ही बहुत बड़ी चुनौती सामने थी जिसे वे सफलता पूर्वक पार कर पाये थे तो उनकी यह आशा व्यर्थ भी नहीं कही जा सकती है.
देश में चुनावी माहौल में मोदी ने जिस तरह से यह साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि संप्रग सरकार कोई काम नहीं करती है और संप्रग सरकार तथा कांग्रेस की तरफ से उसकी काट न करने के कारण उसमें वे काफी हद तक सफल भी हुए तो आज खुद मोदी को भी उसका खामियाज़ा भुगतना ही पड़ेगा क्योंकि देश के लिए पांच दस वर्षों का कालखण्ड महत्वपूर्ण बदलावों को लाने वाला हो सकता है और इतने समय में वे बदलाव आ ही जायेंगें इसकी गारंटी कोई भी नहीं दे सकता है. भारत का विकास अपनी गति से ही चलने वाला है और हर सरकार अपने स्तर से इसमें प्रयास करती रहती है पर आज जिस तरह से विकास को ज़मीन से उठाकर कॉन्फ्रेंस रूम्स तक पहुंचा दिया गया है उससे देश का हित कभी भी नहीं हो सकता है. मोदी सरकार को भी इस बात को अच्छे से समझना चाहिए क्योंकि कुछ नीतिगत काम ऐसे भी होते हैं जिनके पूरा होने में ही लम्बा समय लग जाता है और उसका कोई अन्य विकल्प भी किसी के पास नहीं होता है ऐसी परिस्थिति में अब खुद पीएम को बयानों से आगे बढ़कर मंत्रियों कि जवाबदेही तय कर आगे का रास्ता खोलने का काम करना चाहिए क्योंकि आज मोदी के कद के चलते भाजपा में कोई उनके सामने मुंह नहीं खोल सकता है जिसका दुष्परिणाम आने वाले समय में अवश्य ही दिखाई देने वाला है.

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