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बजट की राजनीति

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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देश में हर बहुत अच्छे, अच्छे, लोकलुभावन या सामान्य बजट के प्रस्तुत किये जाने के बाद हमेशा ही नेताओं की प्रतिक्रियाएं ऐसी ही होती है जिनमें सत्ता पक्ष को वह क्रन्तिकारी लगता है और विपक्ष को दिशाहीन पर इसमें उन अर्थशास्त्रियों की बातों और विचारों का कोई महत्त्व नहीं रहा करता है जिनको आर्थिक मामलों की वास्तविक जानकारी होती है. बात १९९१ के आर्थिक सुधारों से करें तो लोगों ने नरसिंह राव पर देश बेचने का आरोप भी लगाया था पर आज देश में कोई ऐसा दल बचा हुआ है जो उनके द्वारा शुरू की गयी मज़बूत आर्थिक गतिविधियों के लिए मुक्त बाज़ार की प्रशंसा न करता हो और समय आने पर उसके द्वारा केंद्र या राज्य में खुली आर्थिक नीतियों को समर्थन न किया गया हो ? देश में राजनीति जिस निचले स्तर पर पहुंची हुई है उसमें किसी भी तरह से स्वीकार्यता और सामंजस्य की बातें करना ही एक अपराध माना जाता है सत्ताधारी दल यदि किन्हीं विशेष प्रस्तावों के साथ आगे बढ़ना चाहता है तो विपक्ष अपने दम पर उसको रोकने की पूरी कोशिश करता है जिसमें सदैव देश का ही नुकसान हुआ करता है और हमारी विकास की गति भी बाधित होती रहती है.
क्या अब देश के राजनैतिक दलों को नयी तरह से सोचने की आवश्यकता नहीं है जिसमें सभी लोग पूरी तरह से आर्थिक मामलों में अनावश्यक बयानबाज़ी करने से बच सकें और हर दल के पास एक आर्थिक मामलों की समिति भी हो जो अपने दल या सरकार के लिए समय समय पर विभिन्न विश्लेषणों के माध्यम से आर्थिक मामलों पर खुले विमर्श की नीति पर चल सकने में समर्थ हो जिससे पार्टी विशेष के स्थान पर देशहित को नारों से आगे बढाकर मज़बूती से आगे बढ़ने तक ले जाया जा सके. किसी भी नीति के आने के बाद जिस तरह से उसकी सफलता के लिए बहुत सारे आयाम काम किया करते हैं वहीं उनके रास्ते में आने वाले अवरोधों पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है. सरकार के लिए बजट बनाना एक चुनौती होती है पर हमारे देश में सत्ताधारी दल चाहे कितना भी अच्छा बजट बना ले और उसे सफलत तक पहुंचा भी दे पर जब तक विपक्षी उसकी आलोचना नहीं कर लेते हैं उन्हें चैन नहीं मिलता है. क्या भारत जैसे देश में पूरी तरह से मुक्त अर्थव्यवस्था कारगर हो सकती है या फिर हमें आज भी अगले कुछ दशकों तक मिश्रित रूप से आगे बढ़ने की अपनी नीति पर ही चलना चाहिए यह भी बड़ा प्रश्न है.
अब समय आ गया है कि देशहित में सभी दलों को स्वेच्छा से यह काम करने की तरफ बढ़ना चाहिए जिसमें विभिन्न मसलों पर पार्टियों के अंदर ही सुव्यवस्थित समितियों का गठन किया जा सके जो पार्टी की नीतियों को स्पष्ट रूप से जनता के सामने लाने के साथ ही देश के लिए एक बेहतर माहौल बनाने की दिशा में काम करने के लक्ष्य तक सोच सकने में सफल हो. इस मामले में लोकतंत्र की परिपक्वता को लेकर किसी के मन में कोई संदेह भी नहीं होना चाहिए क्योंकि हमारा लोकतंत्र वैसे तो अपने आप में सम्पूर्ण ही है और जिन विपरीत परिस्थितियों के बीच देश ने पिछले सात दशकों में तरक्की की है वह भी दुनिया को अचम्भित करने वाली ही है. वैश्विक आर्थिक परिदृश्य का असर तो सारे देशों पर पड़ता है पर भारत की आर्थिक चुनौतियों और आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए अब समग्र नीतियों के साथ आगे बढ़ने का समय आ गया है बड़े नीतिगत परिवर्तनों के बारे में पहले लोकसभा में व्यापक चर्चा होनी चाहिए और उसके बाद ही नीतिगत परिवर्तनों को आगे बढ़ाया जाया चाहिए. जैसा कि मोदी खुद ही यह कई बार कह चुके हैं कि वे सबके साथ सबका विकास करना चाहते हैं तो इस पर धरातल पर भी उनकी तरफ से ठोस काम किये जाने की ज़रुरत है और हर बात का श्रेय लेने के स्थान पर सहयोग को बढ़ावा देना सरकार की तरफ से ही शुरू किया जा सकता है.

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