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भारतीय राजनीति और मुद्दे

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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बेशक हम दुनिया के सबसे बड़े और धीरे धीरे प्रभावी होते लोकतंत्र की तरफ बढ़ रहे हों पर आज भी जिस तरह से हमारे नेताओं की सही को सही कहने और उसके साथ उनके अपने दलों में उसकी तीव्र प्रतिक्रिया देखने को मिलती है अभी उससे पार पाने की हिम्मत नहीं आ पायी है. जो भी व्यक्ति या पार्टी देश और सरकार चलाने के लिए जनता द्वारा चुनी जाते है तो उसमें जनता को कुछ तो अवश्य ही दिखाई देता है पर हमारे क्षुद्र राजनैतिक स्वार्थ कई बार इस तरह के अवसरों को अपनी संकीर्णता के चलते व्यर्थ ही गँवा दिया करते हैं. ऐसा नहीं है कि सरकार चलाने वाले सभी लोग सदैव ही अच्छे होते हैं या विपक्ष में बैठने वाले सभी लोग बेकार होते हैं पर भारत में राजनीतिक विचारधाराओं के बीच कुछ ऐसी अलिखित सीमा रेखाएँ बनायीं गयी हैं कि उनके पार करने पर सभी को यह लगने लगता है कि अब यह व्यक्ति दूसरी पार्टी में जाने की तैयारी करने में लगा हुआ है जबकि वास्तविकता इससे कोसों दूर ही होती है. आज जब देश की अधिकांश जनता नेताओं के कामकाज पर नज़रें रख पाती है तो इस तरह की मानसिकता का क्या किया जाना चाहिए ?
ताज़ा मामले में जिस तरह से मोदी सरकार बनने के बाद से ही शशि थरूर पर मोदी की तारीफें करने पर कांग्रेस का एक वर्ग उन पर हमलावर हो जाता है पर वे लोग यह भूल जाते हैं कि यदि संसद में सभी दल के नेता साथ में काम कर सकते हैं तो बाद में उनके द्वारा इस तरह की बातों को सामने लाये जाने का क्या मतलब बनता है ? अच्छी नीतियों के समर्थन से देश की सोच सामने आती हैं और इससे पार पाने के स्थान पर इसे देश में और भी व्यापक अर्थों में लेने कि ज़रुरत है. शशि थरूर ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर की राजनीति को बहुत करीब से देखा और समझा है संभवतः यही कारण है कि वे अपनी बात को खुलेआम कह पाने का साहस भी रखते हैं पर उनके इन बयानों को कांग्रेस में ऐसे लिया जाता है जैसे कि वे भाजपा में ही जाने की तैयारियों में लगे हुए हैं ? अनावश्यक रूप से इस तरह के बयानों को महत्व देने से जहाँ सार्थक राजनीति करने वाले नेताओं पर अनावश्यक दबाव बनता है वहीं देश की प्रगति भी बाधित होती रहती है इन बयानों के राजनैतिक निहितार्थ तलाशने के स्थान पर इनके समर्थन की आज बहुत आवश्यकता भी है.
ऐसा नहीं है कि इससे केवल व्यक्ति या दल का ही नुकसान हुआ करता है क्योंकि जब इतनी संकीर्णता से काम किया जाता है तो इसमें देश कहीं बहुत पीछे छूट जाया करता है और सरकार के पास काम करने के अवसर भी घट जाते हैं. पिछली लोकसभा में जिस तरह से जिन नीतियों का भाजपा घोर विरोध किया करती थी आज वह उन्हीं नीतियों के पीछे भाग रही है तो क्या इन वर्षों में जब मनमोहन सरकार को देश की प्रगति के लिए भाजपा के सार्थक सहयोग की आवश्यकता थी तो वह इसमें खरी उतर पायी थी ? इस तरह से देखा जाये तो केवल स्वार्थवश कांग्रेस को श्रेय न लेने देने के लिए ही क्या भाजपा ने पूरी संसद को बंधक सा नहीं बना लिया था यदि उस समय नीतिगत समर्थन करने का शशि थरूर जैसा साहस भाजपा नेतृत्व दिखा पाता तो क्या आज देश में नीतिगत मुद्दों को सुलझाने में भाजपा और मोदी को इतनी मेहनत करनी पड़ती ? इस मामले में देश के दोनों ही प्रमुख राजनैतिक दलों को अपने क्षुद्र राजनैतिक स्वार्थों से आगे बढ़कर सोचने की आवश्यकता है जिससे घटिया राजनीति में फिर कभी देश का नुकसान न होने पाये.

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