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नदियों को जोड़ने के लाभ-हानि

***.......सीधी खरी बात.......***
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देश में एक तरफ जहाँ केंद्र सरकार गंगा नदी को एक उदाहरण मानकर सभी नदियों की सफाई को लेकर चिंतित नज़र आती है वहीं उसके द्वारा नदियों को जोड़े जाने की नीति पर पर्यावरण विशेषज्ञों द्वारा आपत्ति जताए जाने के बाद भी आगे बढ़ना किसी भी तरह से सही नहीं कहा जा सकता है. सरकार का मानना है कि देश में बाढ़ और सूखे के दोहरे संकट से निपटने के लिए नदियों को जोड़ा जाना आवश्यक है जिससे एक जगह के अतिरिक्त पानी को दूसरी जगह कम पानी वाले क्षेत्र में उपयोग के लिए उपलब्ध कराया जा सके. भारतीय परिप्रेक्ष्य में इस योजना को लेकर आशंकाएं इसलिए भी अधिक व्यक्त की जा रही हैं क्योंकि लगभग एक जैसे क्षेत्र से निकलने के बाद भी नदियों के जल और जैविक विविधता में कोई समानता नहीं है जिसके चलते जब इस तरह की किन्हीं दो नदियों को आपस में जोड़ा जायेगा तो उसके पारिस्थितिकी तंत्र पर इसका क्या दुष्प्रभाव पड़ेगा इसकी अभी कोई जानकारी या अध्ययन सरकार के पास नहीं है. विकास के लिए आवश्यक क़दमों को उठाया जाना ज़रूरी है पर जब तक इस विकास को पर्यावरण के अनुकूल नहीं रखा जायेगा तब तक इस विकास की कीमत तो देश को चुकानी ही पड़ेगी.
सिंचाई परियोजनाओं और जल संकट को ध्यान में रखते हुए बड़ी नदी परियोजनाओं पर काम करने के स्थान पर यदि स्थानीय स्तर पर जल प्रबंधन को अधिक महत्त्व दिया जाये तो इससे वास्तव में अधिक लाभ हो सकता है क्योंकि बड़ी नहर परियोजनाओं के लिए जितनी बड़ी संख्या में पलायन और भूमि के जलमग्न होने की सम्भावना रहती है छोटी परियोजनाओं द्वारा उससे भी बचा जा सकता है. आज भी देश के उत्तरी भाग में लगभग हर शहर के साथ कभी वर्ष भर जीवित रहे वाली बरसाती नदियों की उपस्थिति भी है क्योंकि पुराने समय में जलसंकट से निपटने के लिए लोग नदियों के किनारे ही बसने को प्राथमिकता दिया करते थे आज यदि नदियों को जोड़ने से पहले सरकार केवल इन नदियों को फिर से पुनर्जीवित करने के बारे में सोचना शुरू करे और इससे स्थानीय लोगों के जुड़ाव और कर्तव्य को एक साथ ला सके तो देश भर में किसी समय सदानीरा रहने वाली पर अब नाले में बदल चुकी बहुत सारी नदियां पुनर्जीवित हो सकती हैं. यह काम ऐसा होगा जिसमें जनता का जुड़ाव भी होगा साथ ही नदियों के प्रति उसके कर्तव्य की पूर्ति भी हो सकेगी और आम लोगों से जुड़ने के बाद यह अपने आप ही नदियों को साफ़ रखने के कार्य से भी जुड़ ही जाना वाला है.
देश में जल संकट से निपटने के लिए बेशक सरकार के प्रयास सही है पर पर्यावरण विशेषज्ञों की बातों को पूरी तरह से अनदेखा किया जाना क्या सरकार के उस मन्त्र के साथ सटीक बैठता है जिसमें वह “सबका साथ सबका विकास” जैसी बातें करने से पीछे नहीं रहती है ? बेशक आज सरकार के समर्थकों में ऐसे बहुत सारे वैज्ञानिक भी हो सकते हैं जिनको इस परियोजना पर कोई आपत्ति न हो पर जब मामला पर्यावरण जैसे संवेदनशील मुद्दे से जुड़ा है तो क्या सरकार केवल किसी बड़ी परियोजना को शुरू करने के लिए अन्य लोगों की अनदेखी कर सकती है. देश, समाज और विकास के लिए पर्यावरण की अनदेखी क्या आने वाले दशकों में हमें भारी नहीं पड़ने वाली है क्योंकि एक बार जिस प्राकृतिक तंत्र को हम अपने स्वार्थ के हिसाब से बदल देंगें तो क्या वह हमारे चाहने पर फिर से उसी तरह का हो पायेगा और इस प्रयास में जैविक विविधता का जो भी नुकसान हमें होने वाला है उसको क्या हम दोबारा से प्राप्त कर सकेंगें ? मोदी सरकार ने जिस तरह से विकास के लिए पर्यावरण की अनदेखी करनी शुरू कर दी है वह देश के लिए बहुत घातक ही साबित होने वाली है क्योंकि अब विकास के आगे किसी भी अन्य प्राथमिकता के बारे में सोचना सरकार बंद कर चुकी है.

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