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बोडोलैंड और हिंसा

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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वर्चस्व की लड़ाई में आम लोग किस तरह से पिस जाया करते हैं असोम में एडीएफबी (एस) का निर्दोष आदिवासियों पर ताज़ा हमला उसी की एक बर्बर मिसाल से अधिक कुछ भी नहीं है. स्थानीय आबादी के समीकरण बिगड़ने के बाद जिस तरह से बोडो आंदोलन लगातार कभी आदिवासियों तो कभी प्रवासी मुसलमानों के खिलाफ इस तरह की चरम प्रतिक्रिया करता रहता है उससे निपटने के लिए अब कोई कारगर नीति बनाने की आवश्यकता भी है. यह अच्छा ही है कि हर तरह से संवेदनशील इस राज्य में जारी इस समस्या से निपटने के लिए केंद्र सरकार ने भी राज्य सरकार के साथ मिलकर कड़े कदम उठाने और स्थानीय लोगों को पूरी सुरक्षा देने के प्रति अपनी वचनबद्धता दिखाई है. खुद गृह मंत्री राजनाथ सिंह द्वारा जिस तरह कल स्थिति की समीक्षा की गयी और राज्य सरकार के निवेदन पर सहमति दिखाई आज के समय में उसकी बहुत आवश्यकता भी है क्योंकि केंद्र और राज्य के अलग अलग सुरों में बात करने से आतंकियों के हौसले ही बुलंद होते हैं.
राज्य सरकार के पास इस मामले में करने के लिए जो कुछ भी है संभवतः उसमें वह कहीं से चूक भी रही है जिससे बोडो आतंकियों को इस तरह से जन समर्थन भी मिल रहा है. अब इस बात पर विचार करने की अधिक आवश्यकता है कि आखिर बोडो परिषद के अस्तित्व में आने के बाद भी वे कौन से तत्व हैं जो इस तरह से हिंसा का मार्ग छोड़ने को राज़ी नहीं हैं ? साथ ही सरकार के सभी लोगों को भी स्थानीय समस्याओं के बारे में ठोस नीतियां बनाकर उन पर अमल करने की बहुत आवश्यकता भी है क्योंकि आतंकी घटनाओं से किसी का भी भला नहीं हो सकता है और इन्हें पूरी तरह से रोकने के लिए बातचीत के साथ न मानने वाले लोगों के साथ पूरी सख्ती करना भी आवश्यक ही होता है. देश समाज में इस तरह के मतभेद सदैव हुआ करते हैं पर आतंकी घटनाएँ चाहे वे कश्मीर में इस्लामी जिहाद के नाम पर हो या फिर असोम में बोडो स्वाभिमान के नाम पर इन सभी को एक समान आतंकी कृत्य ही माना जाना चाहिए और किसी भी परिस्थिति में आतंकी घटनों को साधारण न माना जाये.
प्रवासियों के खिलाफ बोडो प्रतिनिधि स्थानीय बोडो समुदाय को यह समझाने में सफल होते नज़र आ रहे हैं जिसके अनुसार वे यह कहते हैं कि उन लोगों ने यहाँ आकर बोडो लोगों की ज़मीनों पर कब्ज़ा कर लिया है और जो उनका अधिकार है उससे भी उन्हें वंचित किया जा रहा है. सीमान्त राज्य होने के कारण इन आतंकी संगठनों को सीमापार से भी सहायता मिल जाती है जिससे भी निपट पाना सरकार के लिए आसान नहीं होता है. इस तरह से देश के किसी भी हिस्से चल रहे किसी भी सामाजिक संघर्ष को हमेशा के लिए ख़त्म करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों के साथ क्षेत्र विशेष में सक्रिय सभी राजनैतिक सामाजिक संगठनों की भागीदारी के साथ कोई स्थायी हल निकालने के बारे में सोचना चाहिए जिससे आने वाले समय में इस तरह के नरसंहार देखने को न मिलें. राजनितिक यथार्थ को जब तक सामाजिक सरोकारों से नहीं जोड़ा जायेगा तब तक इस तरह की घटनाएँ पूरी तरह से रोकी नहीं जा सकती हैं. यह राजनैतिक ढांचे के साथ देश के सामाजिक तानेबाने के लिए एक बड़ी चुनौती बनकर सामने आने वाली समस्या है और अब इससे पूरी सख्ती के साथ निपटने की भी ज़रुरत है.

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