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राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की किताब द ड्रमैटिक डेकेड में १९८० की एक घटना के ज़िक्र पर जिस तरह से इस बात का समर्थन किया कि देश के संवैधानिक पदों पर केवल लम्बे राजनैतिक अनुभव वाले लोगों को ही बैठाया जाना चाहिए अपने आप में एक महत्वपूर्ण बात है. हालाँकि अभी तक राष्ट्रपति के पद पर एस राधाकृष्णन और डॉ कलाम ही दो गैर राजनैतिक लोग पहुँच पाये हैं फिर भी राजनीति से इतर क्षेत्र से आये हुए लोगों के लिए कई बार राजनैतिक दृष्टि से संवेदनशील मसलों तथा संवैधानिक समस्या आने पर निर्णय लेना कठिन हो जाता है तथा उन्हें फिर अपने उन दलों पर ही निर्भर रहना पड़ता है जिनके माध्यम से वे चुने जाते हैं. यदि देखा जाये तो प्रणब की यह दलील आज के परिप्रेक्ष्य में भी बिलकुल सही दिखाई देती है क्योंकि मोदी सरकार को राज्यसभा में उतनी संख्या प्राप्त नहीं है जिसके माध्यम से वह किसी भी बिल को अपनी मर्ज़ी के अनुसार पारित करवा सके तो सरकार को भी विपक्षी दलों को साथ लेकर देश हित के मुद्दों पर एक राय बनाने के बारे में सोचना चाहिए.
वैसे तो राष्ट्रपति को किसी संसदीय पीठ को चलाने की ज़िम्मेदारी संविधान ने नहीं दी है पर उपराष्ट्रपति, लोकसभाध्यक्ष और विधान मंडलों के पीठासीन व्यक्तियों के लिए यह बात बिल्कुल सौ प्रतिशत खरी उतरती है क्योंकि जब संवैधानिक मुद्दों पर कई बार ऐसी स्थिति सामने आ जाती है जब सारा दारोमदार केवल पीठ पर ही टिक जाता है. खुद प्रणब भी जितने लम्बे राजनैतिक जीवन को जी चुके हैं और देश के बेहतरीन राजनेताओं के साथ लगातार कई दशकों तक काम कर चुके हैं तो उससे उनकी राजनैतिक सूझ बूझ के बारे में कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया जा सकता है. आज देश के सामने जो भी संकट है उससे निपटने के लिए सभी दलों को संसद से लगाकर विधान मंडलों तक एक जुटता दिखानी चाहिए जिससे पूरी दुनिया को यह पता भी चल सके कि राजनैतिक दलों के अलग होने के बाद भी देश के चुने गए नेता देश के बेहतर भविष्य के लिए सही दिशा में सोचने से पीछे नहीं हटने वाले हैं. राजनीति को देश के विकास और अन्य मामलों में सामने नहीं आने देना जिस दिन हमारे नेता सीख लेंगें उसी दिन से देश के लोकतंत्र को और भी अधिक मज़बूती की तरफ बढ़ने में सहायता मिल जाएगी.
अभी तक जिस भी तरह से राजनीति को देश हित के मुद्दों पर पर भी हावी होने दिया जाता रहता है प्रणब की यह सीख उसमें कितना परिवर्तन कर पायेगी यह तो समय ही बताएगा पर देश को आज इस तरफ सोचने की ज़रुरत तो महसूस होने ही लगी है. आज़ादी के बाद से केवल आपातकाल के समय को छोड़ दिया जाये तो देश ने सदैव ही उस गति को बनाये रखा है जिसके आज उसे ज़रुरत है पर कई मामलों में सत्ता और विपक्ष की राजनीति भी इसमें हावी होती दिखाई देती है आज हमें इस समस्या से ही पार पाने की ज़रुरत है. देश के लिए जो मार्ग अच्छा है वह किसी भी दल की सरकार के आने जाने से तो नहीं बदलने वाला है इसलिए महत्वपूर्ण मुद्दों को अब एक संशोधन के माध्यम से राष्ट्रीय मुद्दा घोषित कर उसे देश हित में लागू करने की दिशा में कदम बढ़ाने के बारे में सोचने की आवश्यकता आ चुकी है. राजनीति के लिए बहुत सारे अन्य मुद्दे खुले पड़े हैं जहाँ पर राजनैतिक दल अपने मन की भड़ास निकाल सकते हैं तो उन्हें आज के समय में पूरी तरह से देश के लिए लम्बे समय की नीतियों के बारे में विचार करने की तरफ बढ़ना ही चाहिए.
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