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वि-निवेश- भारतीय पक्ष

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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१९९१ में शुरू हुए आर्थिक सुधारों के बलबूते जिस तरह से शुरू की गयी विनिवेश के अनुसार अटल सरकार ने पहली बार सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में अपने हिस्से को बेचकर सरकार के राजकोषीय घाटे को कम करने की कोशिशें शुरू की थीं उनके कम्पनियों के पक्ष में आर्थिक परिणाम तो बेहतर तरीके से सामने आये पर सरकार को उनका वास्तविक मूल्य नहीं मिल सका था जिस कारण आईटीडीसी के होटल और अन्य कुछ मामलों में विनिवेश नीति की आलोचना भी की गयी थी. यहाँ पर गंभीर रूप से विचारणीय मुद्दा यह है कि सरकार आखिर देश को किस तरह से चलना चाहती है भले ही वह कांग्रेस की पिछली सरकार हो या फिर अब भाजपा की ? क्योंकि विनिवेश नीति के साथ यदि सुशासन की बात सामने नहीं आती है तो किसी भी तरह के विनिवेश के साथ मिलने वाले धन से केवल राजकोषीय घाटे को सम्बंधित वित्तीय वर्ष में कम करने के दांवपेंच कहीं न कहीं से लम्बे समय में देश के लिए चिंताजनक स्थितियां उत्पन्न कर सकते हैं और हर क्षेत्र बाज़ार के हवाले हो जाने से आने वाले समय में नयी तरह की समस्याएं भी दिखाई दे सकती हैं.
यह सही है कि देश में तीन दशकों के बाद एक दल को जनता ने सरकार चलने के लिए पूर्ण बहुमत दिया है और भाजपा तथा मोदी का चुनावों से पहले केवल एक बात पर ही पूरा अभियान था जिसमें गुजरात के विकासपरक मॉडल को देश में सर्वोत्तम बताकर उसे लागू करने की बात कही गयी थी. आज जब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमतें घट रही हैं और सरकार भी अपने सुशासन के दावे को पूरा करने के लिए दम लगा रही है तो विनिवेश के मुद्दे को एकदम से सामने नहीं लाना सही निर्णय कहा जा सकता है. जब पूरे विश्व में आर्थिक गतिविधियाँ एक बार फिर से २००८ की तरह कमज़ोर पड़ रही है और जापान पर भी उसका असर दिखने लगा है तो आँखें बंद कर उस आर्थिक मॉडल को अपनाने की क्या आवश्यकता है जो लगभग ६ साल बाद एक बार फिर से समस्याग्रस्त होने की तरफ जा रहा है. देश के वर्तमान मॉडल में कुछ तो अवश्य ही ऐसा है जिसके चलते हम सभी पर उस आर्थिक मंदी का उतना असर नहीं पड़ा था जितना विश्व की अन्य अर्थव्यवस्थाओं पर उसने उल्टा असर डाला था.
यदि सुशासन की बात की जाये तो फिर अनावश्यक विनिवेश की बात भी सिरे से नकार देनी चाहिए क्योंकि हमारे देश में सरकार केवल व्यापारियों के हितों का ध्यान रखने के लिए नहीं होती हैं जनता से जुडी हुई हर समस्या और उसके समाधान के बारे में सोचना भी सरकार के लिए मजबूरी ही होती है. जब देश में आर्थिक गतिविधियों में केवल पूर्वानुमानित सुधार ही दिख रहा है और कोई बड़ी प्रगति नहीं दिखाई दे रही है तो सरकार को अपने कड़े क़दमों से आर्थिक गतिविधियों को लगाम देने की अधिक आवश्यकता है. मोदी सरकार को कोई भी निर्णय तेज़ी से लेने के चक्कर में दीर्घकालीन आर्थिक हितों पर भी विचार करना चाहिए क्योंकि एक वित्तीय वर्ष में बजट घाटा कम करना ही सरकार का उद्देश्य नहीं हो सकता है आज अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तेल की कीमत ने सरकार को एक बहुत बड़ा अवसर दे दिया है जिससे वह इस वर्ष के अपने राजकोषीय घाटे को कम करने की तरफ बढ़ ही चुकी है पर ओपेक की अपनी मजबूरियों के चलते यह परिदृश्य लम्बे समय तक नहीं बना रहने वाला है इसलिए आने वाले समय के लिए अभी से तैयारियां करने की बहुत आवश्यकता है.

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