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पश्चिमी घाट – पर्यावरण और विकास

***.......सीधी खरी बात.......***
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देश के सबसे घने जंगलों, सुंदरता और जैव विविधता के लिए विख्यात पश्चिमी घाट के नाम से प्रसिद्द क्षेत्रों में विकास की गतिविधियों पर जिस तरह से राजनीति की जा रही है उससे अंत में आने वाले समय में देश के पर्यावरण पर ही बुरा असर पड़ने वाला है. किसी भी देश के बेहतर विकास के लिए वहां के संसाधनों का भरपूर और उचित दोहन आवश्यक होता है पर भारत में सक्रिय वैश्विक औद्योगिक लॉबी की मंशाओं के चलते जिस तरह से उद्योगों को प्रश्रय देने वाली वर्तमान केंद्र सरकार ने काम करना शुरू कर दिया है उससे भविष्य में क्या दुष्परिणाम सामने आयेंगें यह कोई भी नहीं जान पा रहा है. आज भी देश के जिन भागों में जंगलों के अंधाधुंध कटान और पर्यावरण विरुद्ध औद्योगिक विकास के चलते किस तरह से मौसम में बड़ा परिवर्तन दिखाई देने लगा है यह भी यदि सरकार नहीं देखना चाहती है तो इसका कोई अन्य उपाय भी नहीं है और भविष्य की पीढ़ियों को अब उस समस्या के साथ जीने की आदत डालनी ही होगी.
पश्चिमी घाट की विकास और औद्योगिक गतिविधियों के प्रति संवेदनशीलता को देखते हुए ही पर्यावरण विद माधव गाडगिल ने एक रिपोर्ट तैयार की थी जिसमें उन्होंने इस पूरे क्षेत्र को ही पर्यावरण की दृष्टि से अति-संवेदनशील बताया था वहीं दूसरी ओर के कस्तूरीरंगन समिति ने इस मामले में अपनी राय कुछ बहुत अलग तरीके से दी थी. गाडगिल जहाँ इस पूरे क्षेत्र को ऐसे ही संजोये रखने की बात करते हैं वहीं कस्तूरीरंगन को इसका केवल ४०% हिस्सा ही संवेदनशील लगता है ? एक ही मुद्दे पर इतने बड़े मतभेद के होने के बाद सरकार को इस तरफ इतनी तेज़ी से चलने की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि पर्यावरण को यदि एक बार नुकसान होना शुरू हो गया तो सरकार और कोर्ट भी मिलकर उसको हमेशा के लिए आसानी से नहीं रोक पाती है. नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में सरकार ने जिस तरह से दो टूक शब्दों में अपना जवाब दिया है उससे इस मुद्दे पर कुछ विचार किये जाने की संभावनाएं भी ख़त्म ही हो गयी हैं.
बेशक सरकार को किसी भी तरह की आर्थिक और सामाजिक गतिविधियों को चलाने की पूरी छूट होती है पर जिस तरह से किसी एक मुद्दे पर इतने बड़े मतभेद सामने आ रहे हों तब सरकार का ही यह दायित्व बनता है कि वह दोनों समितियों के त्वरित तुलनात्मक अध्ययन के बारे में सोचे और एक निश्चित समय सीमा में इसके आर्थिक पहलू के साथ पर्यावरण पर पड़ने वाले सभी मसलों पर गंभीरता से विचार करे. सरकार की विकास परकमंशा से किसी को भी कोई आपत्ति नहीं है पर यदि दोनों समितियों के भूभाग के उपयोग में थोड़ी असमानता होती तो उसे माना जा सकता था पर यहाँ तो एक रिपोर्ट इसके लिए तैयार ही नहीं है तो दूसरी रिपोर्ट इसके ६०% आर्थिक उपयोग को सही मानती है ? इस बारे में गाडगिल के पक्ष में केवल एक बात जाती है कि वे जाने माने पर्यावरण विद हैं और इसी पश्चिमी घाट के स्थानीय निवासी भी हैं तो उनके अध्ययन पर शक करने से कुछ खास हासिल नहीं हो सकता है. इस क्षेत्र के बारे में कुछ तो ऐसा विवादित अवश्य ही है जिसके चलते देश में आर्थिक क्रांति को लाने वाले मनमोहन सिंह भी इस क्षेत्र में चाहते हुए भी इस तरह की तीव्र आर्थिक गतिविधियों को शुरू नहीं कर सके थे ? अच्छा हो कि सरकार तेज़ी से निर्णय लेने के साथ देश की दीर्घकालीन पर्यावरण चिंताओं की अनदेखी नहीं करे और वैज्ञानिकों की बातों का सम्मान करे.

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