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भाजपा संसदीय बोर्ड का पुनर्गठन

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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चुनाव लड़ने और मंत्रिमंडल के गठन के समय भाजपा के वरिष्ठों को अति सक्रिय राजनीति से अलग रखने के निर्णय की चाहे जिस भी तरह से आलोचना की जाये पर भारर्तीय परिप्रेक्ष्य में बुजुर्गों द्वारा सत्ता चलाने की परंपरा देखते हुए लगातार युवा पीएम देखने के लिए देश को अभी कई दशकों का इंतज़ार करना पड़ सकता है. किसी भी पार्टी को उसके वर्तमान नेतृत्व द्वारा किस तरह से चलाया जाता है यह पूरी तरह से उस पार्टी विशेष का अंदरूनी मामला हुआ करता है पर भारतीय राजनीति में दूसरे दलों के परिवर्तनों पर टिप्पणी करने के अनावश्यक चलन के कारण इस पर भी बयानबाज़ी की जाती है. निश्चित तौर पर भारतीय लोकतंत्र अपने आप में जनता की सक्रियता के चलते बहुत ही अच्छी स्थिति में है पर नेताओं में आज भी उतने गुण नहीं आ पाये हैं जो एक परिपक्व लोकतंत्र में होने चाहिए. परिवर्तन के चलते ही देश, नेता और राजनीति अच्छे-बुरे दौर से गुज़रा करते हैं फिर भी इसका हर स्तर पर स्वागत ही किया जाना चाहिए.
भाजपा ने जिस तरह से अपने वरिष्ठों को पहले मंत्रिमंडल और फिर पार्टी के सबसे बड़े निर्णायक समूह से अलग किया है उसे किसी भी तरह से गलत नहीं ठहराया जा सकता है क्योंकि लोकतंत्र में पीढ़ियों में इसी तरह से सत्ता और पार्टी में शक्तियों का हस्तांतरण हुआ करता है. वर्तमान में जसी तरह से नरेंद्र मोदी भाजपा में सबसे प्रभावशाली और लोकप्रिय नेता के रूप में सबके सामने आये हैं तो उनकी किसी भी बात का विरोध कर पाना किसी भी भाजपा नेता के बस के बाहर ही है. अटल बिहारी तो अवस्था के चलते अब सक्रिय जीवन से ही कई वर्षों से दूर हैं पर पार्टी के अन्य वरिष्ठों अडवाणी और जोशी को अब यह समझना ही होगा कि उनका दौर समाप्त हो गया है जिससे उनके लिए इस नयी पीढ़ी की राजनीति को स्वीकार करने में और भी अधिक मदद मिलेगी. जिन लोगों ने अपने पूरे जीवन को इस तरह से एक दर्शन के रूप में पार्टी के लिए लगा दिया हो उनके लिए इस सच को स्वीकार कर लेना ही उचित है.
अभी तक देश में कुछ ऐसी परंपरा नहीं बन पायी है कि नेता लोग सार्वजनिक जीवन से खुद ही अलग होने के लिए कोई सीमा चुन लेते पर अब जब यह प्रारम्भ हो चुका है तो इसका स्वागत भी किया जाना चाहिए. सत्ता की राजनीति में वरिष्ठों के अनुभव की भी बहुत आवश्यकता होती है और जब उसकी आवश्यकता हो तब पार्टी को अपनी उस धरोहर की अनदेखी भी नहीं करनी चाहिए. भाजपा में जिस तरह से अडवाणी के खेमे को चुनाव प्रचार शुरू होने के पहले से ही किनारे किये जाने का क्रम शुरू किया गया था उससे उनका मन आहत हुआ क्योंकि नयी पीढ़ी ने उनकी वरिष्ठता की अनदेखी की वहीं स्वयं अडवाणी ने भी इस बात को समझने का कोई प्रयास नहीं किया कि अब अटल-अडवाणी-जोशी युग भी समाप्ति की तरफ बढ़ चुका है. राजनीति में कोई भी स्थायी शत्रु या मित्र नहीं होता है आज आडवाणी खेमे के लिए पार्टी में अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए खुद को साबित करना पड़ रहा है और किसी भी लोकतंत्र में इस तरह की घटनाएँ पार्टियों को अंदर से मज़बूती नहीं प्रदान किया करती हैं.

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