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भारत और कन्या भ्रूण हत्या

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में भारत में बच्चों के लिंगानुपात में निरंतर होने वाली कमी के लिए दहेज़ और सामाजिक परम्पराओं को ज़िम्मेदार माना गया है. अभी तक जिस तरह से भारत में स्त्री-पुरुष लिंगानुपात में तेज़ी से परिवर्तन हो रहा है उस कारण से हरियाणा जैसे राज्यों में अब लड़कों के लिए लड़कियां मिलनी एक बड़ी सामाजिक समस्या के रूप में सामने आ रहा है. कड़े कानूनों के बनने से पहले ही जिस तरह से आधुनिक विज्ञानं का सहारा लेकर कन्या भ्रूणों को गर्भ में ही ख़त्म किये जाने का एक पूरा दौर चला आज उसके दुष्परिणाम समाज के सामने हैं और अभी भी यह खेल उन इलाकों में बदस्तूर जारी है जहाँ पर इस तरह की कोई समस्या फिलहाल नहीं है पर देश के वे हिस्से भी आज पश्चिमी भारत की २५ वर्ष पहले की उसी राह पर चलते हुए दिखाई दे रहे हैं. देश में जिस तरह से समाज ने चिकित्सकों के साथ मिलकर कन्या भ्रूणों को मारने का क्रम शुरू किया वह आज भी पूरी तरह से रुक नहीं पाया है.
. रिपोर्ट में इस बात का भी खुलासा किया गया है कि अधिकतर क्षेत्रों में माता-पिता बच्चियों के खिलाफ तो नहीं हैं पर दो बच्चों के सीमित परिवार में वे एक लड़के की आकांक्षा भी रखते हैं और उसे पूरा करने के लिए वे किसी भी हद तक जाने से नहीं चूकते हैं जिससे भी समाज में लिंगानुपात बिगड़ने की तरफ जाने लग रहा है. भारत में जिस तरह से लड़कियों के विवाह आदि पर बड़ा ख़र्च होता है और उससे निपटने के लिए सरकार और समाज के पास आज भी कोई कारगर विकल्प मौजूद नहीं है तो कई बार इन ज़िम्मेदािरयों से बचने के लिए भी कन्याओं को पैदा होने से पहले ही मार दिया जाता है जिसके दुष्परिणाम तुरंत तो नहीं पर एक पूरी पीढ़ी बीतने के साथ दिखाई देने शुरू होते हैं. आज भी देश में लगभग हर तरह के समाज में लड़कियों को बोझ ही माना जाता है और उनके स्थान पर लड़कों के होने को परिवार में प्राथमिकता दी जाती है.
आज भी देश का आधुनिक दिखने वाला परंपरागत समाज अपनी पुरानी कुरीतियों को लेकर अजीब तरह का व्यवहार करने से नहीं चूकता है. जिस समाज में बड़े बड़े वैज्ञानिक, अधिकारी नेता आदि आगे बढ़कर देश के लिए नयी राहें खोलने का काम करने में लगे हुए हैं उसी समाज में आज भी कन्याओं के पैदा होने पर मायूसी दिखाई देती है ? आखिर समाज अपनी इस तरह की दोहरी मानसिकता से खुद को कब उबार पायेगा ? देश और समाज को सही दिशा में बढ़ते रहने के लिए स्त्री-पुरुष अनुपात को बनाये रखने की बहुत आवश्यकता है पर आज भी अधिकांश क्षेत्रों में इस तरह की सोच दिखाई नहीं देती है लड़के सभी को चाहिए पर कोई यह सोचना नहीं चाहता है कि जब समाज में सभी के घरों में केवल लड़के ही होंगें तो उनके परिवारों और समाज के लिए लड़कियों को कहाँ से लाया जायेगा ? समाज में इस तरह की समस्या के चलते क्या और बुराईयाँ पनपने की आशंका नहीं हो जाएगी ? फिलहाल रूढ़ियों और दकियानूसी सोच में जकड़े हुए इस समाज के पास इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है और कन्यायें गर्भ में ही खत्म होने के लिए विवश हैं.

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