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काटजू का विवाद

***.......सीधी खरी बात.......***
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देश में कोई कितना स्वतंत्र है इस बात की पुष्टि वर्तमान में जस्टिस काटजू द्वारा उत्पन्न किये गए नए तरह के विवाद से स्पष्ट हो गयी है ऐसा नहीं है कि जस्टिस काटजू अपने आप में विवादों से दूर रहने वाले लोगों की श्रेणी में आते हैं फिर भी उनके द्वारा जिस तरह से खुलेआम जजों की नियुक्ति में राजनैतिक दबाव की बात कही गयी है व देश के लिए अवश्य ही चिंतनीय है. अभी तक जिस तरह से यह मान जाता है कि न्यायिक कार्यों में सरकार का दखल कम ही रहा करता है देखने में तो वह वैसा ही लगता है पर जिस तरह से परदे के पीछे लॉबिंग का खेल चलता है वह सभी जानते हैं. देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्तियों के लिए अब इस तरह से जजों कि नियुक्तियों के लिए स्पष्ट नियम बनाये जाने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है क्योंकि किसी एक विवाद को दूर रखते हुए भी यदि पूरी चयन प्रक्रिया पर गौर किया जाये तो वह निश्चित तौर पर सही तो है पर उसमें दबाव के होने से इंकार नहीं किया जा सकता है.
जस्टिस काटजू उस बयान के बाद जिस तरह से एक टीवी शो से तीखे सवाल पूछे जाने पर खुद को उससे अलग करते हुए बाहर आ गए इससे क्या पता चलता है क्योंकि यदि उनके पास कुछ ठोस है तो उन्हें उसे देश के सामने लाने की पूरी कोशिश करनी चाहिए और सरकार को इस मामले की जांच में पूरा सहयोग भी करना चाहिए. पूर्व कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज ने भी यह माना है कि उस जज को लेकर दबाव था पर नियुक्ति में सरकार को कोई हाथ नहीं था और पूरे मामले को सुप्रीम कोर्ट की कमेटी के सुपुर्द कर दिया गया था. पूर्व प्रधान न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन ने भी इस मुद्दे पर हैरानी जताई है और कहा है कि किसी भी न्यायाधीश के सेवा के दौरान प्रदर्शन को देखने की ज़िम्मेदारी तो सम्बंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और अन्य की होती है. उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि उन जज के राजनैतिक संबंधों के बारे में पता चलते ही उन्हें आंध्र प्रदेश स्थानांतरित कर दिया गया था.
अब जब पूरे विवाद में अजीब तरह की स्थिति उत्पन्न हो चुकी है तो अब सरकार को पुराने रेकॉर्ड देखकर इस पर कुछ करना चाहिए और नियमों में इस तरह का बदलाव करना चाहिए जिससे आने वाले समय में इस तरह की गतिविधियों पर रोक लगायी जा सके. आज देश के हाई कोर्टों और सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ वकीलों को न्यायाधीश बनाये जाने की प्रक्रिया चलती ही रहती है और जिस राज्य में जिस दल की सरकार होती है वह अपने लोगों को इन पदों पर बैठाती ही रहती है इसमें कोई नयी बात नहीं है. हर राज्य और केंद्र में सरकार बदलने पर जिस तरह से सरकारी अधिवक्ताओं और महाधिवक्ताओं को बदला जाता है उससे क्या उनकी राजनैतिक निष्ठाओं की पूर्ति नहीं होती है ? क्या अब देश में अखिल भारतीय स्तर पर इन सरकारी वकीलों की नियुक्ति के लिए भी एक प्रवेश प्रक्रिया नहीं होनी चाहिए जिससे आने जाने वाली सरकारें किसी भी व्यक्ति को अपने मन से इन पदों पर न बैठा सकें और प्रशासनिक/ पुलिस अधिकारियों की तरह उनको केवल उन लोगों में से ही किसी को चुनने की आज़ादी होनी चाहिए.

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