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नृपेन्द्र मिश्र और कानून

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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पीएम के रूप में नरेंद्र मोदी ने अपनी टीम को चुनते समय जिस तरह से १९६७ बैच के सेवानिवृत्त आईआईएस अधिकारी और ट्राई के पूर्व अध्यक्ष नृपेन्द्र मिश्र की अध्यादेश के माध्यम से नियुक्ति की थी अब विपक्ष के सरकार के उस तरीके पर कड़ा रुख अपनाने से सरकार के लिए लोकसभा में तो कोई दिक्कत नहीं होने वाली है पर राज्य सभा में अछहि खासी बहस और अध्यादेश के पहले बार में गिरने की पूरी संभावनाएं व्यक्त की जा रही हैं. वैसे देखा जाये तो किसी भी निर्वाचित सरकार को अपने लिए अधिकारियों की टीम जुटाने के लिए संविधान ने पूरी छूट दी हुई है पर तेज़ी से बढ़ते हुए भारतीय दूरसंचार क्षेत्र में ट्राई की भूमिका को देखते हुए यह प्रावधान किया गया था कि इसके किसी भी पूर्व अधिकारी को किसी भी दशा में सरकार में कोई पद नहीं दिया जायेगा. इस निर्णय में तब भाजपा भी सरकार के साथ थी क्योंकि इस तरह के नियम के अभाव में कोई अधिकारी इस पद पर बैठकर किसी कम्पनी के हितों को पोषित कर सकता है और बाद में सरकार में पहुँच कर उसके अनुसार नीतियां भी बनवा सकता है.
यूपी कैडर के नृपेन्द्र मिश्र का नाम अपने आप में ईमानदारी की मिसाल है और उन्होंने जितने महत्वपूर्ण पदों पर काम किया है आज तक उनके किसी भी निर्देश या निर्णय पर किसी भी तरह के भेदभाव की कोई बात सामने नहीं आई है इसलिए यदि मोदी द्वारा उनको चुना जाता है तो यह उनकी विशेषता ही है पर जिस तरह से उनकी नियुक्ति की गयी उसका देश के वर्तमान राजनैतिक स्वरुप और कानून में कोई स्थान नहीं है. विपक्ष चाहकर भी उनकी नियुक्ति को अधिक समय तक नहीं रोक सकता है क्योंकि किसी भी कानून में संशोधन करने का अधिकार सरकार के पास हर समय रहा करता है. अच्छा होता कि इस तरह की नियुक्ति के स्थान पर सरकार उनके नाम को आगे बढाती और कानून में संशोधन के लिए संसद की मंज़ूरी लेने का प्रयास करती. यदि उनकी नियुक्ति से पहले यह काम किया जाता तो संभवतः उसका इतना विपरीत असर नहीं पड़ता और यह काम सरकार के लिए बहुत आसान हो जाता.
यह देश का ही संविधान है जो सरकार को नियम और कानून बनाने की पूरी छूट दिया करता है पर साथ ही वह सरकारों से यह अपेक्षा भी करता है कि वे उनको दिए गए अधिकारों के साथ कर्तव्यों को भी ध्यान में रखते हुए ही काम करना सीखें. इस परिस्थिति में पता नहीं सरकार के थिंक टैंक ने यह कैसे मान लिया कि अध्यादेश के ज़रिये किसी नियुक्ति को सरकार कैसे सही ठहरा लेगी जबकि वर्तमान कानून उसकी अनुमति ही नहीं देता है ? मोदी के बारे में यह कहा भी जाता है कि वे अपने काम को करवाने में कानून की परवाह नहीं किया करते हैं तो देश के सर्वोच्च राजनैतिक पद पर बैठने के बाद उनके इस कदम से क्या देश को उनके इस स्वरुप का ही नहीं पता चलता है ? अच्छा हो कि वे अब इस तरह के विवादित मुद्दों को तेज़ी से आगे बढ़ाने के स्थान पर सदन की राय और कानून को प्राथमिकता देने की तरफ सोचना शुरू करें. सदन में देश को आगे बढ़ाने के इस तरह के किसी भी काम में आखिर वे विपक्ष को इस तरह के अवसर क्यों देना चाहते हैं यह तो वे ही जाने पर इस सरकार की संसदीय कार्य मामलों में अनुभवहीनता और मंत्री का आक्रामक रूप सरकार को अनावश्यक विवादों में घसीटता ही रहेगा. सरकार देश के लिए जब कुछ अच्छा करना चाहती है तो फिर उसके लिए ये छोटे रास्ते अपनाने से उसे पूरी तरह से परहेज़ भी करना चाहिए जिनसे विपक्ष को हमलावर हो सदन के काम को बाधित करने का अवसर मिलता है.

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