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जजों की नियुक्तियां और नियम

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल सुब्रह्मण्यम की नियुक्ति के मामले में मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा ने जिस तरह से सरकार के रुख से नाराज़गी दिखाई है वह देश को एक बार फिर से सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर कब तक महत्वपूर्ण पदों के लिए इस तरह की अनावश्यक राजनीति और बातें सामने आती रहेंगीं ? लोढ़ा ने जिस तरह से सरकार की आलोचना की ठीक उसी तरह से उन्होंने सुब्रह्मण्यम के सीधे बयान जारी करने को भी पूरी तरह से गलत बताया है और यह भी कहा कि गोपाल को कम से कम उनके विदेश से वापस लौटने तक प्रतीक्षा तो करनी ही चाहिए थी. न्यायपालिका और विधायिका में पहले भी बहुत सारे मसलों पर मतभिन्नता रहा करती है पर उसका मतलब यह तो नहीं होना चाहिए कि सरकार और न्यायपालिका के बीच के विवाद इस तरह से सबके सामने आये और इसके पीछे चलने वाली राजनीति को महत्व दिया जाये. सुब्रह्मण्यम के पास वरिष्ठता और अनुभव का सामंजस्य था जिसे देखते हुए ही उन्हें इस पैनल में शामिल भी किया गया था.
न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए अभी तक जिस तरह से कोर्ट और सरकार अघोषित तरीके से एक नीति पर ही चलती रहती हैं उसका अनुपालन किया जाना भी आवश्यक है और यदि सरकार को ऐसा लगता है कि इस नीति में कुछ गड़बड़ होती है तो अब इसके लिए नीति में आमूलचूल परिवर्तन करने की तरफ सोचना भी चाहिए. देश को शीर्ष स्तर पर इस तरह का नाटक कभी भी अच्छा नहीं लगता है भले ही वह किसी भी दल की सरकार क्यों न हो यह मुद्दा देश की प्रतिष्ठा से जुड़ा हुआ होता है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इससे हमारी छवि धूमिल हुआ करती है तो अब इससे निजात पाने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने की आवश्यकता भी सामने आ गयी है. गोपाल सुब्रह्मण्यम के सोहराबुद्दीन मामले में पैरवी किये जाने के कारण ही राजग सरकार उन्हें सुप्रीम कोर्ट में जज के रूप में नहीं देखना चाहती थी जिस कारण से ऐसी परिस्थितिया बनायीं गयीं कि उन्होंने इस मामले से खुद पूरी तरह से अलग ही कर लिया.
कहने के लिए तो देश में सुप्रीम कोर्ट स्वतंत्र है पर इस घटना से सभी को यह पता चल गया है कि देश के राजनैतिक तंत्र ने न्यायिक नियुक्तियों पर भी इतना कड़ा बंधन लगा रखा है कि बिना उसकी अनुमति के कुछ भी नहीं किया जा सकता है. एक वरिष्ठ और काफी हद तक प्रभावशाली ढंग से अपनी बात को रखने वाले व्यक्ति को जज बनने से रोककर केंद्र सरकार को क्या हासिल हुआ है यह तो उसे ही पता होगा पर देश ने आने वाले समय के एक बेहतरीन जज को खो दिया है वर्ना इस मामले में लोढ़ा इस तरह से चिंता प्रगट नहीं करते और खुलेआम सरकार की इस तरह से आलोचना नहीं करते. देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है और किसी पर भी कोई दबाव नहीं है पर राजनैतिक विरासत को दूर रखते हुए महत्वपूर्ण नियुक्तियों को राजनीति से दूर रखा जा सके तो यह देश के लिए बहुत अच्छा होगा. यह बात किसी एक दल के लिए बल्कि सभी दलों पर लागू होती है और इस तरह की नियुक्तियों के लिए पैनल बनाकर उस पर निर्णय लेने का अधिकार सरकार के बजाय सुप्रीम कोर्ट पर ही होना चाहिए.

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