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गिरती इमारतें और ख़त्म होती जिंदगियां

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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एक ही दिन में दिल्ली, चेन्नई के बाद लखनऊ में भवन निर्माण या उससे जुड़े मामले में तीन भवनों के गिरने के बाद से जिस तरह से हम सभी के सामने यह सवाल उठा खड़ा हुआ है कि आखिर हमारी व्यवस्था में कहाँ कौन सी कमी है जिसके चलते इस तरह की घटनाएँ आम होती चली जा रही हैं. पूरे मामले में सबसे दुखद पहलू यह भी है कि एक ज़िम्मेदार नागरिक की तरह हम देशवासी भी अपने हितों से मुंह मोड़ते हुए दिखाई देते हैं क्योंकि शायद इन हादसों में हमारा कोई हमसे दूर नहीं होता है पर एक व्यवस्था जिसमें इतना घुन लग चुका है उस पर भरोसा करने वाले हम लोग भी किसी दिन इसका शिकार हो भी सकते हैं ? संभवतः आज हर व्यक्ति और सरकार को केवल उन कामों को प्राथमिकता से निपटाने की जल्दी होती है जिससे उस पर कोई असर पड़ता है आम लोगों से जुड़े हुए मुद्दे केवल चिंता करने के लिए ही हुआ करते हैं.
अधिकारियों और भवन निर्माताओं के बीच के गठजोड़ के चलते इस तरह कि घटनाएँ आम होती जा रही हैं पर चूंकि ये घटनाएँ लगातार नहीं होती हैं तो कोई भी इन पर उतना ध्यान नहीं देना चाहता है जितनी बड़ी यह समस्या होती है ? अवैध भवन निर्माणों को जिस तरह से पैसे के लेनदेन के माध्यम से वैध करा दिया जाता है आज उस पर कोई विचार नहीं करना चाहता है और इन अवैध रूप से बढ़ने और बसने वालों के एक वोट बैंक में बदल जाने के बाद किसी भी लोकतान्त्रिक सरकार के बूते से यह बात बाहर ही हो जाती है जिसमें वो इच्छा होते हुए भी कोई प्रयास नहीं करना चाहती है ? अधिकारियों के साथ क्या हम नागरिक के रूप में इस भ्रष्टाचार को बढ़ाने के लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं क्योंकि हम में से ही कुछ लोग इस तरह की गतिविधियों में लिप्त भवन निर्माताओं के पास अपने सपनों के घर खोजने के लिए जाया करते हैं.
अवैध रूप से किये जाने वाले किसी भी काम में कुछ भी सही नहीं होता है क्योंकि दिल्ली और देश के अन्य बड़े शहरों में जिस तरह से बेहद संकरी गली में चार मंज़िले या उससे ऊंचे भवन मौजूद हैं तो उनमें रहने वालों के लिए सुरक्षा के क्या प्रबंध सरकार की तरफ से किये जा सकते हैं ? आवश्यकता पड़ने पर इन स्थानों तक तो सहायता पहुँचाना भी एक बड़ी चुनौती हुआ करता है और जब राहत और बचाव के लिए आवश्यक उपकरण और मशीनें ही नहीं दुर्घटना स्थल तक नहीं पहुँच पाती हैं तो उसमें पूरी समस्या और भी विकराल हो जाया करती है. बड़े शहरों में आवास के सपने अच्छे हैं पर अपनों की ज़िंदगियों को खतरे में डालकर इस तरह से मौत के मुहाने पर रहने को किसी भी तरह से सही नहीं कहा जा सकता है. पूरे मामले में चिंताजनक बात यह भी है कि हम नागरिक अपनी आवश्यकता को पूरा करने के लिए नियम कानून को पैसों के दम पर किनारे करने से नहीं चूकते हैं जिसके ऐसे ही दुष्परिणाम सामने आते रहते हैं.

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