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परमाणु ऊर्जा और विश्व

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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१९४५ में अमेरिका द्वारा नागासाकी और हिरोशिमा पर किये गए परमाणु हमले के बाद जिस तरह से पूरी दुनिया के सामने परमाणु विज्ञान का सबसे खतरनाक स्वरुप सामने आया था उसे देखते हुए तत्कालीन सोवियत संघ ने १९५० में इसके शांतिपूर्ण उपयोग पर काम करने के बारे में सोचना शुरू किया और २६ जून १९५४ को उसने अपने पहले परमाणु ऊर्जा संयंत्र को शुरू कर पूरी दुनिया को दिखा दिया कि हर ऊर्जा के दो पहलू होते हैं और यह उसे उपयोग करने करने वाले पर है कि वह उससे बम बनाता है या अँधेरे घरों में उजाला फ़ैलाने का काम किया करता है ? जब रूस ने इस तरह की परमाणु ऊर्जा के बारे में सोचना शुरू किया तो केवल पांच साल पहले ही इसकी विभीषिका देख चुकी पूरी पीढ़ी दुनिया भर में मौजूद थी और उसे लगा कि यह भी कहीं शहरों के अंदर या कुछ दूर पर स्थापित परमाणु बम जैसे ही न साबित हो जाएँ पर रूस के वैज्ञानिकों ने इस सपने को धरातल पर उतार कर अपनी इच्छाशक्ति पर परिचय दे ही दिया था.
मॉस्को से केवल १५० किमी की दूरी पर प्यातकिनो में स्थापित ओबिनिंस्क संयंत्र ने जिस तरह से पूरी दुनिया के सामने एक बेहतरीन और कामयाब ऊर्जा के विकल्प खोल दिए थे वहीं सोवियत संघ को इस मामले में बढ़त भी दे दी थी. सोवियत परमाणु कार्यक्रम के जनक आइगोर कूर्चतोव भी परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण इस्तेमाल के बड़े पक्षधर थे तभी उनकी इस कामना के साथ ही परमाणु ऊर्जा से विद्युत उत्पादन की तरफ जाने के बारे में सोचा गया वर्ना उससे पहले परमाणु ऊर्जा का विध्वंसक स्वरुप ही दुनिया ने देखा था. भारत ने इस संयंत्र को कितना महत्त्व दिया था इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी ने भी अपनी सोवियत यात्रा के दौरान इसका दौरा किया था. भारत के परमाणु ऊर्जा कार्य्रक्रम में भी सोवियत संघ ने सदैव ही भरपूर सहयोग और योगदान देकर उसे आगे बढ़ाने का काम ही किया है जो दोनों देशों के उस दौर के मज़बूत रिश्तों को भी प्रदर्शित करता है.
भारतीय परिप्रेक्ष्य में आज भी अमेरिका और पश्चिमी देशों के रुख के कारण परमाणु ऊर्जा का वह व्यापक स्वरुप सामने नहीं आ पाया है जिसके माध्यम से देश की ऊर्जा आवश्यकतों को पूरा किया जा सकता है और आने वाले समय में देश के विकास की गति को भी आगे बढ़ाने में सफलता मिल सकती है. भारतीय परिस्थिति के बारे में पूरी दुनिया यह जानती है कि अभी तक जो भी नीति भारत द्वारा बनायीं गयी है उसका अनुपालन भी बहुत कठोरता के साथ किया गया है और अब देश इस स्थिति में पहुँच चुका है कि वह संवर्धित यूरेनियम के माध्यम से अपनी ऊर्जा आवश्यकतों को पूरा कर सके. देश में जिस तरह से परमाणु ऊर्जा के विकासात्मक स्वरुप की चर्चा शुरू होकर काम होना चाहिए वह अभी भी नहीं आ पाया है. सोवियत संघ के इस पहले परमाणु संयंत्र से यह बात साबित भी कर दी है कि यदि सुरक्षा को प्राथमिकता दी जाये तो परमाणु ऊर्जा से अधिक प्रभावी और सस्ती ऊर्जा कहीं और से नहीं मिल सकती है. फिलहाल इस स्वच्छ ऊर्जा के २६ जून को साठ वर्ष पूरे होने पर दुनिया के सामने यह अपने बेहतरीन स्वरुप को तो दिखा ही चुका है.

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