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काश ऐसा होता तो ?

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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आजकल देश में एक नए तरह के अनुमान लगाने की कोशिशों पर लगातार ही लिखा और बोला जा रहा है पहले पीएमओ के मीडिया सलाहकार संजय बारु और फिर अब पूर्व केंद्रीय कोयला सचिव पीसी पारेख की किताबों को लेकर जिस तरह से राजनैतिक माहौल गर्माने की कोशिशें की जा रही हैं उनसे अंत में देश का ही नुक्सान होने वाला है. नीतिगत मामलों में सरकार के प्रयासों को संसद की मंज़ूरी आवश्यक होती है पर जब टेलीकॉम और कोयला घोटाले में नीतिगत मसलों पर कोई सार्थक बहस करने में हमारे देश की संसद विफल ही रही तो उसका क्या मतलब निकाला जाना चाहिए ? आज भी जिस तरह से महत्वपूर्ण विवादित मामलों में केवल संसदीय समिति बनाकर सरकार और संसद अपने काम को पूरा मान लेती हैं उससे कहीं न कहीं देश का बहुत बड़ा नुक्सान ही होता है क्योंकि कोई भी ऐसी नीति नहीं होती है जो चिरकाल तक प्रभाव रह सके और जो पूरी तरह से निरापद भी हो ?
पूर्व अधिकारी और नेता जिस तरह से आंकलन लगाने में लगे हुए हैं तो उसका क्या अर्थ निकलता है यह सभी जानते हैं पर जो भी बातें किसी दल विशेष के हित में होती हैं वो उसी को लेकर दूसरे दल पर हमला करने से आगे नहीं बढ़ पाता है और आने वाले समय में केवल अपनी चुनावी या राजनैतिक संभावनाओं पर ही विचार करने लगता है. जो किया जा सकता था और नहीं हो सका उस पर अब कुछ भी कहने से परिस्थितियां बदलने वाली नहीं हैं और आने वाले समय में उनसे सबक लेकर वैसी ही गलतियां करने से बचने के लिए सही दिशा में सोचने का अब समय भी आ गया है. देश का हित किसी भी पार्टी के हित से बहुत आगे होना चाहिए पर आज कोई भी ऐसी पार्टी नहीं दिखाई देती है जिसमे इतना दम हो की वह अपने तात्कालिक नुक्सान को झेल कर देश हित में कड़े कदम उठाने से भी न चूके ? नेताओं की भीड़ भी यदि हमें कोई सही दिशा नहीं दिखा सकती है तो उससे आखिर क्या हासिल हो सकता है.
यहाँ पर सबसे अधिक ध्यान देने की बात यह है कि किसी भी दल को संभवतः यह ऐसा मसला लगता ही नहीं है कि वह अपने आपको देश के लिए सही नीतियां बनाने के लिए प्रस्तुत कर सके पर हर दल केवल उन्हीं नीतियों को अपने हिसाब से आगे बढ़ाने की कोशिशें करता है जिसके माध्यम से उसे आने वाले चुनावों में कुछ सम्मानजनक वोट मिल सकें और वे अपनी सरकार बना सकें. क्या इस तरह की सोच अब देश को आगे बढ़ाने का काम करने में सफल हो सकती है ? देश के लिए जो कुछ भी आवश्यक है उस पर संसद को दलीय भावना से ऊपर उठकर विचार करना चाहिए पर हमारी संसद में दलीय भावनाएं केवल तभी टूटती दिखाई देती हैं जब नेताओं को अपने वेतन-भत्ते या सुविधाएँ बढ़ानी होती हैं वर्ना आमतौर पर अच्छे संवाद और बहस के लिए अब संसद के पास समय ही नहीं बचा है. देश के लिए किन्तु परन्तु करने के स्थान पर सरकार और विपक्ष को साथ में काम करने की जितनी आवश्यकता होती है हमारी संसदीय प्रणाली अभी भी उस पर काम करना सीख नहीं पायी है.

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