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भुल्लर,बिट्टा के बहाने राजनीति

***.......सीधी खरी बात.......***
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पहले लिट्टे और अब खालिस्तानी आतंकी देवेंदर पाल सिंह भुल्लर की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदलने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने जहाँ भारत में कानून की कमज़ोरी और नेताओं के द्वारा किये जाने वाले करतबों को सबके सामने लाकर रख दिया है वहीं एक ऐसी परंपरा को भी पोषित करना शुरू कर दिया है जिसमें आने वाले समय में विचाराधीन और सजा पाये हुए अपराधियों के पास कानून से बचने का एक रास्ता खुल सा गया है. सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में स्पष्ट रूप से यह भी कहा है कि दया याचिका की सुनवाई में हुई देरी और भुल्लर के ख़राब मानसिक स्वास्थ्य के चलते कोर्ट यह आदेश दे रही है. इस बात से एक बात और भी स्पष्ट होती है कि देश के सामने आसन्न विभिन्न तरह की अतिवादी चुनौतियों के बीच आज भी हमारे नेता देश के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए किसी ठोस रणनीति पर विचार करने के लिए तैयार ही नहीं दिखते हैं जिससे आने वाले समय में और भी कठिन चुनौतियाँ सामने आ सकती है.
इस फैसले से सबसे अधिक प्रभावित और आतंकवाद विरोधी मोर्चे के अध्यक्ष एम एस बिट्टा ने जिस तरह से अपनी नाराज़गी को दिखाया है वह सही भी है क्योंकि उनके नज़रिये से उनका उस हमले के बाद से सब कुछ बदल ही गया था और हमले में नौ लोग मारे भी गए थे. आज बिट्टा ने जिस तरह से यह भी खुलासा किया है कि उनसे ख़ुफ़िया एजेंसियों के दो लोग मिले थे और आतंकवाद पर चुप रहने की नसीहत दी थी यह अपने आप में बहुत ही गम्भीर मसला है क्योंकि यदि उनके आरोप सच हैं तो उन लोगों को आज खोजने की आवश्यकता भी है और उनके या किसी अन्य राजनेता के आतंकियों के साथ किसी भी तरह के सम्बन्धों पर भी जांच करने की आवश्यकता है. बिट्टा जैसे व्यक्ति कोई भी बात अनावश्यक रूप से नहीं करते हैं और वे जिस संजीदगी के साथ आतंकवाद का विरोध करने में लगे हुए हैं उस पर भी संदेह नहीं किया जा सकता है. बिट्टा के साथ भी उचित व्यवहार की अपेक्षा जनता कानून से करती है.
अब इस बात पर गौर करने और कानून में आवश्यक संशोधन करने की आवश्यकता सामने आ चुकी है कि हर तरह के प्रयास करके अब यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि किसी भी परिस्थिति में ऐसे किसी भी मसले को लम्बे समय तक लटककर नहीं रखा जायेगा. आज भी जिस तरह से गम्भीर आतंकवादी बताकर लोगों को हिरासत में लिया जाता है और उने खिलाफ वर्षों तक कोई सबूत इकठ्ठा नहीं किये जा सकते हैं तो उस स्थिति को अब बदलने की आवश्यकता है. आतंक से जुड़े किसी भी मसले में जांच को समयबद्ध तरीके से पूरा करना का दबाव पूरी तरह से विवेचना करने वालों पर ही होना चाहिए और उसमें असफल रहने पर उनके खिलाफ कार्यवाही भी की जानी चाहिए. अधिकतर संदेह के आधार पर हिरासत में लिए गए लोगों के खिलाफ कोर्ट में टिकने लायक सबूत नहीं मिल पाते हैं तो उनको जेलों में रखने का क्या मतलब बनता है ? देश को अब आज की परिस्थितियों के अनुसार कानून में बदलाव कर हर तरह की तेज़ी दिखाने की आवश्यकता है पर दुर्भाग्य से इस मसले पर भी राजनीति से काम चलाया जा रहा है.

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