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आप की राजनीति और लोकसभा चुनाव

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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लोकसभा चुनावों के लिए अपने प्रत्याशियों की पहली सूची जारी करते समय जिस तरह से आम आदमी पार्टी का रुख दिखायी दे रहा है उसका देश की स्थापित राजनीति में कोई मूल्य नहीं रहा है क्योंकि अभी तक किसी भी परिस्थिति में हर दल दूसरे दल के बड़े और अनुभवी नेताओं के खिलाफ अधिक पेशबंदी करने के स्थान पर अन्य क्षेत्रों में पूरा ज़ोर लगाया करते हैं जिससे संसद में भी हर दल के अनुभवी लोग पहुँचते रहें और देश को उनके संसदीय और अन्य क्षेत्रों में अर्जित किये गए ज्ञान का लाभ मिलता रहे. राजनीति में बिलकुल नए आये राजीव गांधी ने भी १९८४ के मध्यावधि चुनावों में एक बार यह प्रयास किया था और उस समय कुछ घाघ नेताओं के कहने पर भाजपा के बड़े दिग्गजों को इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति में हारने में कॉंग्रेस को सफलता भी मिल गयी थी और स्थिति यह थी कि तेलगु देशम पार्टी संसद में विपक्ष की भूमिका निभा रही थी ? उस चुनाव के बाद कॉंग्रेस या राजीव ने फिर इस प्रयोग को नहीं दोहराया क्योंकि इसने संसद में अनुभवी राजनेताओं की कमी को बढ़ावा दिया था.
इस बार देश में बदलाव की भूमिका में लगी हुए आप ने जिस तरह से सभी दलों के बड़े नेताओं के खिलाफ ऐसे प्रयास शुरू किये हैं उससे भ कुछ इसी तरह का खतरा बढ़ जाता है क्योंकि जब इस तरह से सनसनी पैदा करके चुनाव लड़े जायेंगें तो इनमें से कुछ लोग संसद तक सम्भवतः पहुँच भी न पाएं और उनके संसदीय अनुभव का क्या होगा जो देश के विकास में सहायक हो सकता है ? अच्छे लोगों को संसद में होना चाहिए पर उसके लिए यह विकल्प कहाँ तक कारगर कहा जा सकता है कि हर सीट पर दो ऐसे लोग आमने सामने हो जिनके संसद में होने से संसदीय परंपरा को मज़बूती मिलती हो पर जनता के सामने किसी एक को ही चुनने का विकल्प हो ? अच्छे विकल्प पैदा करने के प्रयास में विकल्पों को सीमित कर देने की यह अभिलाषा आखिर किस तरह से देश का सही प्रतिनिधित्व कर पायेगी यह तो समय ही बतायेगा पर इससे संसदीय अनुभव को किनारे लगाने का काम करने की आप की कोशिशें किसी न किसी स्तर पर देश के लिए समस्याएं उत्पन्न करने वाली ही होंगी.
दिल्ली विधान सभा इसका बहुत अच्छा उदाहरण है क्योंकि अरविन्द केजरीवाल चाहे जिस सीट से लड़ते जीत सकते थे पर उन्होंने जिस तरह से शीला दीक्षित को सदन से बाहर रखने की रणनीति अपनायी उससे उनके अपने महत्व को बढ़ाने में सफलता तो मिली पर क्या शीला इतनी बुरी थीं कि जनता १५ साल के उनके कामों को इस तरह से भूल कर उन्हें धूल चटा देती ? अरविन्द द्वारा विकल्प न छोड़े जाने के कारण ही इस तरह की स्थिति उत्पन्न हुई और लम्बे अर्से बाद सदन से १५ वर्षों तक सीएम रही शीला सदन में नहीं पहुँच पायीं सम्भवतः इससे अरविन्द की जीत और आप की बढ़त कहा जा सकता है. साथ ही स्पष्ट रूप से यह है भी पर जब दिल्ली विधान सभा की कार्यवाही चल रही थी तो क्या खुद अरविन्द को यह महसूस नहीं हुआ कि वरिष्ठ राजनेता भी सदन में होने चाहिए ? दलगत राजनीति में एक समय ऐसा भी आता है कि हर व्यक्ति और दल अपने लिए सुचारु रूप से सरकार चलाने के प्रयास करता है पर इस तरह से हर बड़े नेता को सदन में आने से रोकने के प्रयास को केवल बीमार मानसिक अवस्था ही कहा जा सकता है और स्थापित और जीवंत लोकतंत्र में इस तरह की राजनीति लम्बे समय में देश के लिए ही घातक हुआ करती है.

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