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बिजली की राजनीति

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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ऊर्जा के अपने संकटों से जूझ रहे देश में जिस तरह से दिल्ली में सरकार और बिजली वितरण कम्पनियों के बीच रस्साकशी चालू है उसका सीधा असर पूरी तरह से सीधे ही जनता और बिजली क्षेत्र में किये जा रहे सुधारों पर ही पड़ने वाला है क्योंकि जब भी किसी मूलभूत आवश्यकता में इस तरह से राजनीति का समावेश किया जाने लगता है तो परिस्थितियां किस तरह से नियंत्रण के बाहर चली जाती हैं यूपी इसका सबसे बुरा उदाहरण है. आज यूपी के कुछ बड़े राजनैतिक रूप से प्रभावी शहरों को छोड़ दिया जाये तो २४ घंटे बिजली मिलना एक सपना है और तहसील मुख्यालयों तक को ८ से १० घंटे बिजली मिलनी मुश्किल हो रही है ? दूरगामी निर्णयों के स्थान पर तात्कालिक उपाय किये जाने का क्या असर होता है यह यूपी के मामले में अच्छे से समझा जा सकता है इन मुश्किलों में रही सही कसर राजनैतिक दलों के उलटे पुल्टे फैसले भी पूरी कर हर तरह के सुधारों की हवा निकालने का काम करने में लगे ही रहते हैं.
देश की विशाल ऊर्जा आवश्यकताओं को देखते हुए जिस तरह से बिजली क्षेत्र को राजनैतिक आधार से अलग हटकर व्यवसायिक रूप से चलाने की आवश्यकता है उसके लिए आज भी राजनैतिक दलों में इच्छा की कमी दिखायी देती है जैसा कि दिल्ली में हो रहा है क्योंकि जब सरकार इस तरह से बिजली वितरण कम्पनियों पर दबाव बनाकर उन्हें घाटे में झोंकने के लिए तत्पर दिख रही है तो दिल्ली में इस वर्ष बिजली की स्थिति बहुत बुरी होने की सम्भावना से इंकार भी नहीं किया जा सकता है. सरकार को यदि इनके परिचालन में कोई कमी दिखती है तो उसे सबसे पहले उन राज्यों की वितरण व्यवस्था का अध्ययन करना चाहिए था जिसके माध्यम से उसे यह पता चल पाता कि वास्तव में इस क्षेत्र की क्या स्थिति है ? ऐसा करने से जहाँ उद्योगपतियों में सरकार के प्रति भरोसा जागता और सरकार के साथ बातचीत में अच्छे रास्ते सामने आते जिससे वास्तव में जनता का ही भला होता पर बिजली कम्पनियों को चोर बताकर आखिर दिल्ली सरकार क्या साबित करना चाहती हैं ?
देश के ऊर्जा सरप्लस वाले राज्यों के उत्पादन और वितरण पर भी ध्यान देने की बहुत आवश्यकता है क्योंकि दिल्ली की बिजली कंपनियां कभी गुजरात, छत्तीसगढ़, हिमाचल, उत्तराखंड जैसे राज्यों की बराबरी नहीं कर पाएंगीं क्योंकि उनके पास विभिन्न तरह की प्राकृतिक ऊर्जा दोहन की प्रचुर सम्भावनाएं हैं और उसके माध्यम से वे कम लागत में बिजली पैदा कर पाने में सक्षम हैं वहीं दिल्ली जैसे राज्य को अन्य स्रोतों से खरीदी गयी बिजली पर ही अधिक निर्भर रहना पड़ता है क्योंकि उसके पास यह सब उपलब्ध नहीं है तो लागत से कम मूल्य पर खरीदी गयी बिजली आखिर किस तरह से लम्बे समय तक मिल सकती है इस पर भी विचार होना ही चाहिए ? देश के समग्र विकास के लिए हर उपलब्ध ऊर्जा का दोहन आवश्यक है पर उसके लिए जितने बड़े संसाधनों की आवश्यकता है वह सरकार के पास उपलब्ध नहीं है तो निजी क्षेत्र के बिना उससे बिजली कैसे बनायी जा सकती है ? केवल विरोध की राजनीति करने वाले केजरीवाल को अब यह समझना ही होगा कि वे किसी तीन घंटे की फ़िल्म के हीरो नहीं हैं अब उन्हें उन ज़मीनी हक़ीक़तों से उलझना ही होगा जो सरकार चलाने में सामने आती ही हैं और जनता को हर चीज़ सस्ती या फ्री में देकर वोट तो मिल सकते हैं पर देश का कभी भला नहीं हो सकता है.

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