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दंगे और राजनैतिक सुविधा ?

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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विश्व के सबसे विविधता भरे देश भारत में आज़ादी के पहले और बाद में जगह जगह भड़कने वाले जातीय या सांप्रदायिक दंगों को लेकर जिस तरह की राजनीति सदैव से ही की जाती रही है वह हर तरफ से देश का ही बड़े पैमाने पर नुक्सान किया करती है और उससे देश में जान माल की बड़े पैमाने पर क्षति होती रहती है. दंगों के बारे में आज कोई भी दल अपने को पाक साफ़ नहीं कह सकता है क्योंकि समय समय पर जिस तरह से हर दल ने इस सामाजिक विद्वेष का अपने अनुसार दुरूपयोग कर वोट बटोरने का काम किया है वह देश के लिए बहुत ही घातक है फिर भी देश का राजनैतिक ढांचा आज भी इससे कुछ भी सीखने को तैयार नहीं है. वर्तमान में देश की दो सबसे बड़ी पार्टियां भी जिस तरह से १९८४ के सिख विरोधी दंगों और २००२ के मुस्लिम विरोधी दंगों के कारण अपने को निरुत्तर पाती है और किसी भी स्तर पर उनके लिए इन दंगों के भूत उनका पीछा नहीं छोड़ते हैं और समय समय पर विभिन्न तरह की राजनैतिक गतिविधियों को रोकने का प्रयास भी इन दलों द्वारा किया जाता है.
दंगों को सही और गलत समझने का कोई भी प्रयास सभ्य समाज में उचित नहीं ठहराया जा सकता है पर जब भी कहीं न कहीं से आम लोगों के बीच में नफरत की दीवारें केवल अपने राजनैतिक हितों को साधने के लिए ही खड़ी की जाती हैं तो उस स्थिति में अधिकतर पूरी व्यवस्था किस तरह से हाथों से फिसल जाती है यह हर दंगे में दिखायी ही देता है पर राजनैतिक दल कई बार अपने राजनैतिक लाभ के लिए इस तरह के दंगों में अपनी भूमिका को कुछ समय तक सीमित कर लिया करते हैं जिससे भी कानून और सामजिक सद्भाव की धज्जियाँ उड़ जाती हैं जबकि हर सरकार के लिए हर तरह के दंगों को रोकने के लिए जो ज़िम्मेदारी संविधान ने निर्धारित की है उसमें असफल रहने वाले दलों के खिलाफ कोई कुछ नहीं कर सकता है. देश में जब भी चुनाव आते हैं तो दंगों की राजनीति को आगे कर वोटों के ध्रुवीकरण की भरपूर कोशिशें हर राजनैतिक दल द्वारा की जाती हैं जबकि इस तरह की किसी भी कोशिश कर हर स्तर पर विरोध होना चाहिए पर सुविधा के आगे कानून को कोई नहीं पूछता है.
आज देश में ८४ और ०२ के दंगों को लेकर सरकारों की कोशिशों पर निशाने लगाये जा रहे हैं इन दोनों ही दंगों में जिन लोगों ने अपने प्रियजनों को खोया है उनके घाव कुरेदकर आखिर देश के नेताओं को क्या मिलने वाला है यह तो वही बता सकते हैं पर जब भी किसी दंगे के समय राज्य की विफलता सिर्फ इसलिए होती है कि वो किसी एक पक्ष के साथ खड़े होने की कोशिशें करने लगता है तो सरकार और राज्य की व्यवस्था पर उँगलियाँ उठनी स्वाभाविक ही हो जाती हैं. दंगों को रोकना हर राज्य की ज़िम्मेदारी है और यदि इसके बाद भी ये नहीं रुकते है तो शांति बहाली के बाद कानून को निष्पक्ष होकर उसका काम करने देना चाहिए पर अधिकतर मामलों में ऐसा हो नहीं पाता है क्योंकि सत्ताधारी दल अपने हितों को साधने की हर जुगत को इसमें भी खोज ही लेता है और पुलिस तथा प्रसासन से उसी तरह से काम करने को कहता है जिससे उसके कुछ वोट बढ़ सकते हों पर इस पूरी कवायद में देश का हर बार ही बहुत बड़ा नुक्सान हो जाया करता है. अब देश के लिए इन सभी नेताओं को दंगे की राजनीति खेलने से बाज़ आना चाहिए क्योंकि इसमें हर बार केवल आम जनता और देश ही हारता है.

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