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रुपया, सेंसेक्स और आर्थिक संकेत

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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पिछले कुछ हफ़्तों में देश में हर आर्थिक मोर्चे से आती बुरी ख़बरों के बीच अब जब रुपया और सेंसेक्स मजबूती पकड़ रहे हैं तो इनके नीचे जाने के समय अनावश्यक रूप से बोलने वाले लोग अब पता नहीं कहाँ गायब से हो गए हैं ? अभी दो हफ़्तों पहले तक इस बात के अनुमान लगाये जाने लगे थे कि अब देश में १९९१ से भी बुरा आर्थिक दौर शुरू होने वाला है और अब परिस्थितियां बहुत प्रतिकूल हो चुकी हैं जबकि आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ इसे भी बाज़ार की एक नियमित चाल ही मान रहे थे जिसमें आर्थिक लाभ के लिए लगाये जाने वाले धन को विदेशी निवेशकों द्वारा तेज़ी से निकाला गया और सरिया संकट के कारण तेल बाज़ार में भी जिस तरह से आग लगी तो उसके बाद यह लगने लगा था कि अब स्थितियां संभवतः आसानी से नियंत्रण में न आ सकें. पूरे परिदृश्य में जिस तरह से बाज़ार नीचे जा रहा था और रूपये की कीमत डॉलर के मुकाबले घटती ही जा रही थी तो भारत के साथ डॉलर पर टिका हुआ पूरा विश्व इस तरह की आंच महसूस कर रहा था.
अब जब भले ही तात्कालिक रूप से निवेशकों का भरोसा बाज़ार में बढ़ा है और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में भी उतनी अनिश्चितता नहीं लग रही है तो संभवतः इन कारकों से होने वाले उतार चढ़ाव में अब कमी आ जाये पर अभी भी यह संकट से मुक्ति जैसी बात नहीं लगती है क्योंकि जब हमारे हाथों में केवल नीतियां निर्धारण करने की छूट ही है तो उनमें ही कुछ सुधार करके हम अपने लक्ष्य को यदि पूरी तरह से हासिल नहीं कर सकते हैं तो कम से कम उसकी तरफ बढ़ने का एक ईमानदार प्रयास तो कर ही सकते हैं ? आज जब देश की पूरी अर्थ व्यवस्था वैश्विक बाज़ारों से जुड़ी हुई है तो उस स्थिति में हम उन परिस्थितियों से कैसे अछूते रह सकते हैं जो पूरी तरह से देश के हर वर्ग को प्रभावित करने की स्थिति में आज आ चुकी हैं यह भी सही है कि जब हम अपने लाभ के लिए खुद को पूरी दुनिया के लिए खोलते हैं तो किसी भी बड़े संकट के समय हम पर उससे होने वाले बुरे प्रभावों को भी नकारा नहीं जा सकता है और आज यही परिस्थितियां सामने आई हुई हैं तो इनका सामना तो करना ही होगा भले ही उसकी कुछ भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े ?
आज भी केवल एक आवश्यकता है कि देश में रक्षा, गृह, विदेश, वित्त जैसे विभागों पर नीति निर्धारण के लिए स्थायी समितियां बनायीं जाएँ जिन पर सभी दल मिलकर एक साथ विचार करें और किसी भी दल के द्वारा सरकार चलाये जाने की स्थिति में उन पर कोई बड़ा दुष्प्रभाव न पड़ सके. आज देश में हर नयी नीति का केवल विरोध के लिए ही विरोध किया जाता है जिससे भी परिस्थितियां और भी विषम हो जाया करती हैं क्योंकि जब तक हमारे पास एक ऐसा वातावरण नहीं होगा जिसमें हम देश के बारे में सोच सकें तो आख़िर देश को आगे कैसे बढ़ाया जा सकेगा ? दुर्भाग्य की बात है कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर कोई सोच न रखने वाले नेता और दल भी केवल जोड़ तोड़ के सहारे हमारे देश में पीएम बनने के सपने देखा करते हैं जबकि आज की स्थिति में केवल अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों के साथ हर मसले पर सही सोच की आवश्यकता है. आर्थिक मुद्दे पर मनमोहन सिंह की हंसी उड़ाने वालों की देश में आज भी कोई कमी नहीं है जिससे देश के बनते हुए सुर भी विदेशों तक पहुँचते हैं और विदेशी औद्योगिक और निवेशक समूहों को यह लगता है कि अन्य दल की सरकार आने पर पता नहीं क्या हो जायेगा ? इस मामले में अटल सरकार का रवैया काफी हद तक ठीक रहा था क्योंकि उन्होंने ९१ में नरसिंह राव द्वारा लागू किये गए आर्थिक सुधारों को पूरे मनोयोग से आगे भी बढ़ाया था और उन्हें भी कुछ ही मामलों में फेर बदल की आवश्यकता पड़ी थी.

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