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मानसून सत्र और विधायी काम

***.......सीधी खरी बात.......***
***.......सीधी खरी बात.......***
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वर्तमान लोकसभा जहाँ अपने अंतिम दौर में पहुँचती हुई अगले आम चुनावों की तरफ देश को ले जा रही है वहीं इस बार इस लोकसभा ने विधायी काम काज निपटाने में देरी लगाने का भी एक अघोषित रिकॉर्ड अपने नाम कर लिया है. विभिन्न मुद्दों पर जिस तरह से सरकार से असहमति के नाम पर पूरी संसद को ठप किए जाने का काम लगातार ही किया जाता रहा है उससे यही पता चलता है कि देश के सभी दल देश हित से जुड़े मुद्दों में भी किस तरह से अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने से बाज़ नहीं आते हैं ? यह सही है कि अपने वेतन भत्तों को बढ़ाने के अतिरिक्त अन्य सभी मुद्दों पर सभी दलों की राय एक समान आज तक नहीं हो पाई है जिस कारण से भी संसद में सामान्य विधायी काम कर पाना एक बुरे सपने जैसा हो गया है और किसी भी स्तर पर इससे निपटने के लिए कोई भी राजनेता या दल ठोस प्रयास करता नहीं दिखाई देता हा जिससे कई बार आवश्यक विधेयक सदन में पारित ही नहीं हो पाते हैं और सरकार अनवश्यक रूप से अध्यादेशों का सहारा लेकर आगे बढ़ने का छोटा मार्ग ढूंढती रहती है ?
हर बार की तरह इस बार भी जहाँ सर्व दलीय बैठकों में सभी दलों ने सदन को सुचारू ढंग से चलाने की आवश्यकता पर अपनी सहमति दिखाई है आज पहले दिन ही उसकी धज्जियाँ उडनी तय हैं क्योंकि सभी दलों को अपनी राजनैतिक मजबूरियों के चलते सदन में अराजकता फ़ैलाने में ही आज सबसे अधिक विश्वास हो गया है और जबसे सदन की बैठकों का सजीव प्रसारण भी किया जाने लगा है तभी से नेताओं की गंभीरता भी गायब जैसी होती दिखती है क्योंकि दिग्गज नेता तो किसी मुद्दे पर स्वयं हंगामा नहीं करते हैं पर जब बात असहमति जताने की आती है तो वे अघोषित रूप से अपने जूनियर नेताओं के हल्ला बोल पर किसी तरह का कोई अंकुश लगाने का प्रयास भी करते नहीं दिखाई देते हैं और जनता की कमाई से चलने वाले इस गरिमामयी सदन के इतिहास की धज्जियाँ उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं ? सदन को चलाने की ज़िम्मेदार जहाँ के तरफ़ सरकार पर ही अधिक होती है पर उसमें विपक्ष की सकारात्मक भूमिका से भी इंकार नहीं किया जा सकता है.
विभिन्न तरह के राजनैतिक दबावों और अपने हित की नीतियों को लागू करवाने में सभी दल पूरा प्रयास किया करते हैं पर जब बात देश के लिए नियम बनाए जाने की होती है तो नेताओं को पता नहीं क्या हो जाता है. सदन चलाने के लिए जो भी स्थापित परम्पराएँ हैं आज उनका कोई मोल नहीं रह गया है जिससे भी पूरा परिदृश्य धुंधला सा हो जाता है क्योंकि जब तक सदन को चलाने के लिए उसके विभिन्न सत्रों का आदर नहीं किया जाएगा तो सरकार भी बहस के स्थान पर केवल ध्वनिमत से ही महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित करवाने से नहीं चूकेगी जबकि इन पर सदन में गंभीर बहस की जानी चाहिए ? आज देश में राजनीति का स्वरुप पूरी तरह से बदल गया है क्योंकि संसद में बहस के स्थान पर नेता अब टीवी पर बहस को अधिक प्राथमिकता देने लगे हैं जिस कारण से भी बहस का स्वरुप उस जनता के हितों की तरफ मुड़ता दिखाई देने लगा है जो टीवी देखती है पर उस जनता के बारे में कोई कुछ नहीं सोचता है जो बिना टीवी देखे भी इसी देश में रहती है ? देश को सार्थक और प्रभावी बहस के बाद बनने वाले नियमों की अधिक आवश्यकता है क्योंकि बिना उनके विकास को सही दिशा में नहीं ले जाया जा सकता है पर क्या देश की इस आवश्यकता को हमारे नेता सुन भी पा रहे हैं या नहीं ?

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